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पण है, उसके अनुरूप कितने ही आगमों की प्राचीन स्वरूपस्थिति वर्तमान में उपलब्ध नहीं है ।
काफी लम्बे समय तक श्रुतसाहित्य भिक्षुसंघ ने कंठस्थ ही रखा, लिखा नहीं । क्योंकि भिक्षुओं को लिखने का निषेध था । अतः चिरकाल तक कण्ठस्थ रहे श्रुतवचनों में हेर फेर हो जाना स्वाभाविक है । १४ भगवान महावीर के १८० अथवा ६६३ वर्ष बाद वलभी ( सौराष्ट्र) में श्री देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण के तत्त्वावधान में, निरन्तर विच्छिन्न एवं परिवर्तित होता हुआ श्रुत पुस्तकारूढ़ हुआ, १५ और तब कहीं जाकर श्रुतसाहित्य में कुछ अपवादों को छोड़ कर बड़े हेर फेर होने का क्रम अवरुद्ध हो सका, जिसके फलस्वरूप आगमसाहित्य को वर्तमान में उपलब्ध स्थिररूपता मिली ।
प्राचीन लुप्त प्रश्न व्याकरण प्रश्न व्याकरण सूत्र का स्थान अंगप्रविष्ट श्रुत में है । यह दशवां अंग है । समवायांग सूत्र और नन्दी सूत्र तथा अनुयोगद्वार सूत्र में प्रश्न व्याकरण के लिए
१४ - ( क ) पोत्थसु घेप्पंतसु असंजमो भवइ ।
जत्तिय मेत्ता वारा बंधति, जति अक्खराणि लिहति व,
- दशवैकालिक चूर्णि पृ० २१ मुंचति य जत्तिया वारा । तति लहुगा जं च आवज्जे ।
- निशीथ भाष्य ४००४ (ग) इह च प्राय: सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते, न च टीकासंवादी एकोऽप्यादर्शः समुपलब्धः, अत एकमादर्शमङ्गीकृत्यास्माभिविवरणं क्रियत इति एतदवगम्य सूत्रविसंवाददर्शनाच्चित्तव्यामोहो न विधेय इति । --शीलांकाचार्य, सूत्रकृतांग वृत्ति, मुद्रितपत्र ३३६-१ पुस्तकानामशुद्धितः ।
(घ) वाचनानामनेकत्वात्
सूत्राणामतिगाम्भीर्याद् मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥२॥ आचार्य अभयदेव, स्थानांगवृत्ति, प्रारम्भ १५ - (क) समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स नववाससयाई विक्कताई दसमस्त य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ । वाणंतरे पुण् अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ ।
— कल्पसूत्र, महावीर चरित्राधिकार (ख) वल हिपुरम्मि नयरे, देवड्ढिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थइ आगमु लिहिओ, नवसय असीआओ वीराओ ॥ अर्थात् ईस्वी ४५३ मतान्तर से ई० ४६६
- एक प्राचीन गाथा