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जैन श्रुत साहित्य जैन परम्परा का श्रुत साहित्य प्राचीनकाल में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्यइस प्रकार दो रूपों में विस्तृत हुआ है । अंग प्रविष्ट श्रुत वह है, जो अर्थतः परमर्षि तीर्थकर देवों द्वारा कहा गया है और तदनन्तर तीर्थकरों के साक्षात् शिष्य श्रुत केवली गणधरों द्वारा सूत्र रूप में रचा गया है।
अंगबाह्य श्रुत वह है, जो गणधरों के बाद विशुद्धागम विशिष्टबुद्धिशक्तिसम्पन्न आचार्यों के द्वारा काल एवं संहनन आदि दोषों के कारण अल्पबुद्धि शिष्यों के अनुग्रह के लिए रचा गया है।
अंग प्रविष्ट श्रुत, जिसे गणनायक आचार्यों का सर्वस्व होने के कारण 'गणिपिटक' भी कहा जाता है, बारह प्रकार का है :
(१) आयार (आचार) (२) सूयगड (सूत्रकृत) (३) ठाण (स्थान)
५- तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंगपविट्ठ अंगबाहिरं च ।
-नन्दी सूत्र, श्रुतज्ञानप्रकरण ६-(क) यद् भगवद्भिः सर्वज्ञः सर्वदशिभिः परमर्षिभिरहभिस्तत्स्वाभाव्यात्परम
शुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोऽनुभावादुक्तं भगवच्छिष्यरतिशयवभिरुत्तमातिशयवाग्बुद्धिसंपन्नर्गणधरैर्दृब्धं तदङ्ग प्रविष्टम् ।
-तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य ११२० ७- गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्तविशुद्धागमः परमप्रकृष्टवाङ मतिशक्तिभिराचार्यः कालसंहननायुर्दोषावल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत्प्रोक्तं तदङ्गबाह्यम् ।
- तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य १-२० 4-(क) दुवालसंगं गणिपिडगं ।
__-अनुयोग द्वार, प्रमाण प्रकरण (ख) गणी आचार्यस्तस्य पिटकं-सर्वस्वं गणिपिटकम् ।
-मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि, अनुयोगद्वारटीका ६- अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्ण त, तं जहा-आयारो १, सूयगडो २, ठाणं ३,
समवाओ ४, विवाहपण्णत्ती ५, नायाधम्मकहाओ ६, उवासगदसाओ ७, अंतगडदसाओ ८, अणु त्तरोववाइयवसाओ ६, पण्हावागरणाई १०, विवागसुयं ११, दिद्विवाओ १२
-नन्दी सूत्र, श्रुतज्ञान प्रकरण