________________
( द )
माना है । अतः अपनी-अपनी परम्परागत मान्यता एवं धारणा के अनुसार शब्दप्रमाणस्वरूप श्रुत और श्रुति दोनों ही प्रकार के मौलिक साहित्य में आप्त पुरुषों के विशिष्ट वचनों का संकलन ही अभीष्ट है, साधारण रथ्यापुरुषों के वचनों का नहीं, जो हर किसी गली कूचे के रागद्वेषाभिभूत लोगों के कहे हुए हों । अपनी अपनी परम्परा के सभी महापुरुषों को आप्त कहा जाता है । पर, यह बात दूसरी है कि सत्य की कसौटी पर परखते समय किस के वचन खरे उतरते हैं, और किसके नहीं ।
जैनदर्शन शब्द प्रमाण के रूप में श्रुत का अर्थ 'आप्तपुरुषों के वचन' तक ही सीमित नहीं रखता है । वह श्रुत से श्रुतज्ञान तक पहुँचा है । शब्दरूप श्रुत को वह केवल उपचार से प्रमाण मानता है, निश्चय में नहीं । शब्द जड है, अतः वह कैसे प्रमाणकोटि में आ सकता है । यदि जड़ पदार्थ प्रमाण हो सकते हैं तो फिर घट पटादि सभी जड़ पदार्थ प्रमाण कोटि में आ जाएँगे । आचार्य वादिदेव ने अपने प्रमाणनयतत्त्वालोक ( ४। १-२ ) में इसी दृष्टि से कहा है कि आप्तवचनों से आविर्भूत होने वाला अर्थसंवेदन ही वस्तुतः आगम अर्थात् शास्त्र है । आप्तवचनों को जो शब्दप्रमाणरूप आगम कहा जाता है, वह मात्र उपचारकथन है । ' आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः ।' 'उपचारादाप्तवचनं च ।'
इसी संन्दर्भ में तत्त्वार्थ भाष्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार श्रीसिद्धसेन गणीने अपनी टीका (१-२०) में कहा है कि इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ग्रन्थानुसारी विज्ञान श्रुत है । श्रुतं इन्द्रियमनोनिमित्तं ग्रन्थानुसारि विज्ञानं यत् ।
४ – (क) आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत् सावं, शास्त्र कापथघट्टनम् ॥
- न्यायावतारसूत्र 8
(ख) श्रुतशब्दो जहत्स्वार्थवृत्ती रूढिवशात् कुशलशब्दवत् ।
(ग) आप्तोपदेशः शब्दः ।
- न्यायदर्शन १1१1७ (घ) आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा ।
- तत्त्वार्थ राजवार्तिक १।२०।१
- न्यायदर्शन - वात्स्यायन भाष्य १|१|७
(ङ) आप्तो रागादिवियुतः, तस्य वचनमिति ।
- तत्त्वार्थ भाष्य-सिद्धसेनीया वृत्ति १ – २० (च) अभिधेयं वस्तु यथाऽवस्थितं यो जानीते यथाज्ञानं चाभिधत्ते स आप्तः । - प्रमाण नयतत्त्वालोक ४-४