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कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसीलिए अनेक आधुनिक इतिहासकार उसकी ऐतिहासिकता में भी सन्देह करते हैं और उसे एक काल्पनिक व्यक्ति मानते देखे जाते हैं। जैन कालगणनाओं में भी इस राजा विक्रमादित्य का उल्लेख है तथा मध्य एवं पश्चिमी भारत के जैनों में सो उसी के संक्त की प्रवृत्ति भी विशेष रही है। विक्रमादित्य का कुलधर्म भी जैन था, राज्यधर्म भी जैन था, मालवगणों और मालवदेश के प्रजाजनों में भी इस धर्म की प्रवृत्ति थी। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार विक्रमादित्य ने चिरकाल तक राज्य किया और स्वदेश को सुखी, समृद्ध एवं नैतिक बनाया | उसने तथा उसके उपरान्त उसके वंशजों ने मालवा पर लगभग एक सौ वर्ष. राज्य किया बताया जाता है। . .
. सातवाहनवंशी राजे
ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के अन्त से लेकर सन् ईस्वी की तीसरी शताब्दी के प्रारम्भ पर्यन्त दक्षिणापथ के बहुभाग पर पैठन (प्रतिष्ठानपुर) के सातवाहनवंशी नरेशों का प्रायः एकाधिपत्य रहा । यह वंश आन्ध्रजातीय था और सम्भवतया ब्राह्मण एवं मागरक्तमिश्रण से उत्पन्न हुआ था। प्राचीन ब्राह्मणीय साहित्य में आन्ध्रों को जाति बाह्य, नीच और अनार्य कहा है, किन्तु ये सातवाहन राजे स्वयं को क्षत्रियों का मानमर्दन करनेवाले ब्राह्मण कहते थे। इस वंश में लगभग तीस राजाओं के होने का पता चलता है जिनमें से शातकर्णि प्रथम एवं लितीय, हाल या शालिवाहन, गौतमीपुत्र शातक और यज्ञश्री शासकणि विशेष प्रसिद्ध हैं। वे सजे पर्याप्त शक्तिशाली एवं विस्तृत महाराज्य के स्वामी थे। अधिकांशतः सातवाहनवंशी नरेश ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, किन्तु अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु थे। प्राचीन जैन साहित्य में सालवाहन राजाओं के अनेक उल्लेख मिलते हैं, और उनमें से कई एक का जैन होना भी सूचित होता है। किन्तु क्योंकि ये उल्लेख प्राय: 'पैठन का शालिवाहन राजा' रूप में पाये जाते हैं अतएव इस वृक्ष के नरेशों की सूची में उन्हें धीन्हना दुष्कर है। इन अन राजाओं में प्रसिद्ध 'सतसई' के रचयिता हाल (20-24 ई.) अपरनाम शालिवाहन के भी होने की सम्भावना है। यह ग्रन्थ महाराष्ट्री प्राकृत में आर्या छन्दों में रचित है और उसपर जैन विचारों का प्रभाव लक्षित होता है। सातवाहन समय में जैनों की प्रिय प्राकृत भाषा का ही प्रचलन था। ये राजे स्वयं तो विद्वान या विशेष विद्यारसिक नहीं थे, किन्तु विद्वानों का बिना साम्प्रदायिक भेदभाव के आदर करते थे। हमारा तो साधार अनुमान है कि 'तत्वार्थाधिगमसूत्र' के रचयिता जैनाचार्य उमास्वाति इसी राज्यवंश में उत्पन्न हुए थे। जैनाचार्य शर्ववर्म द्वारा "कातन्त्र' व्याकरण की रचना तथा जैनाचार्य कागभिश्च या काणभूति द्वारा प्राकृत के मूलकथग्रन्थ की रचना और उसके आधार पर गुणाढ्य की 'वृहत्कथा की रचना सातवाहन नरेशों के ही प्रश्रय
खारवेश-विक्रम युग ::7