Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 344
________________ अन्य अनेक युद्धों में उसने भाग लिया और अपनी शूरवीरता का परिचय दिया। अरिसिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी राणा हमीरसिंह द्वितीय के राज्यकाल में आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के संकटों के बीच राज्य की परिस्थिति बड़ी विकट हो गयी थी। उसके सँभालने में अंगरचन्द बच्छावत का प्रशंसनीय योग रहा। हमीरसिंह के उत्तराधिकारी राणा भीमसिंह के समय में तो वह राज्य का प्रधान बन गया था। लगभग आधी शती पर्यन्त राज्य की और उसके तीन नरेशों की निष्ठापूर्वक सेवा करके अच्छी वृद्धावस्था में यह कुशल राजनीतिज्ञ, प्रचण्ड बुद्धवीर और स्वामिभक्त राजपुरुष 1800 ई. में स्वर्गस्थ हुआ। कहते हैं कि मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पुत्र देवीचन्द ने अपने रहने के लिए एक सुन्दर आलीशान महल बनवाना शुरू किया था। मेहता को जब यह सूचना मिली तो तुरन्त पुत्र को पत्र लिखा कि "बेटा सच्चे शूरवीर तो रण क्षेत्र में क्रीड़ा किया करते हैं, वहीं शयन करते हैं, तब तुमने यह विपरीत मार्ग क्यों अपनाया? क्या तुम्हारे हृदय में अपने वीर पूर्वजों की भाँति जीने और मरने की हौस नहीं है? यदि तुम उनका अनुकरण करना चाहते हो और स्वदेश की प्रतिष्ठा बनाये रखने के इच्छुक हो तो इस महल का त्याग कर दो। घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे रोटी खास और नींद आये तो घोड़े की जीन पर ही सोने की आदत डालो, तभी तुम अपनी कीर्ति की रक्षा कर सकोगे। हमारे पुरखों का पुरातन काल से यही ढंग रहता चला आया है ऐसा उद्बोधन एक सच्चा कर्मठ वीरपुरुष ही दे सकता है। मेहता देवीचन्द - अगरचन्द बच्छावत का ज्येष्ठ पुत्र था और उसकी मृत्यु के उपरान्त राजमन्त्री तथा जहाजपुर दुर्ग का शासक नियुक्त हुआ। कुछ दिन वह प्रधान भी रहा। उस युग में राजस्थान के राजपूत राज्यों में पेशवाओं के मराठे सरदार बड़ा हस्तक्षेप कर रहे थे, निरन्तर कूटनीतिज्ञ दाँवपेंच और छुटपुट बुद्ध होते रहते थे। ऐसे ही एक चक्कर में शक्तावतों के सहायक मराठा बालेराव ने देवीचन्द्र को चूड़ायतों का पक्षपाती मानकर पकड़ लिया और बन्दीगृह में डाल दिया। राणा भीमसिंह ने यह सूचना पाते ही उसे छुड़ा लिया, क्योंकि उस समय प्रधान या राजमन्त्री पद पर न होते हुए भी वह स्वामिभक्त वीर था और राजा उसका बहुत आदर एवं विश्वास करता था। एक बार जातिमसिंह झाला और मराठों के आगे विवश होकर राणा ने माण्डलगढ़ दुर्ग झाला के नाम लिख तो दिया, किन्तु साथ ही एक ढाल और तलवार देकर एक सवार को तुरन्त दुर्गपाल मेहता देवीचन्द के पास माण्डलगढ़ भी भेज दिया। मेहता समझ गया कि राणा ने दबाव में आकर तो दुर्ग को उन लोगों को सौंप देने की लिखित आज्ञा दी है, किन्तु ढाल और तलवार भेजकर अपनी वास्तविक इच्छा का भी संकेत कर दिया कि युद्ध किया जाए। अतएव देवीचन्द ने दुर्ग की रक्षा एवं सम्भावित युद्ध की पूरी तैयारी कर ली और दुर्ग को हाथ से न निकलने दिया। झाला सरदार विफलमनोरथ हुआ। जब 1820 ई. के लगभग कर्नल टाड मे आधुनिक युग देशी राज्य : 851

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