Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 353
________________ MM OMG00000000001 . जोधपुर लौट आए । स्वाभिमानी वीरन धनराज ऐसे अप्रतिष्ठाकारक समर्पण के लिए तैयार नहीं हुआ। अन्ततः उसने अपनी अंगूठी के हीरे को चाटकर आत्महत्या कर ली और दम तोड़ने से पूर्व अपने साथियों से चिल्लाकर कहा कि महाराज से जाकर कह दो कि धनराज राजाज्ञा का इसी रूप में पालन कर सकता था, उसके शव के ऊपर ही मराठे अजमेर में प्रवेश कर सकते थे, उसके जीवित रहते नहीं। पूर्वोक्त सिंघवी इन्द्रराज सम्भवतया योर धनराज सिंघधी का ही पुत्र या निकट सम्बन्धी था। बीकानेर राज्य महाराज अपूपसिंह (1669-98 ई.)-याह बीकानेर-नरेश बड़े विद्यानुरागी, उदार एवं युद्धवीर थे। इनके समय में खरसरमच्छाचार्य जिनचन्द्रसुरि (1654-1706 ई.) का बीकानेर से बड़ा सम्पर्क रहा और यह नरेश उनका बहुत आदर करते थे। इन दोनों के बीच पत्र-व्यवीरता था यः शया और जैन की उत्तम स्थिति थी। राज्य से जैन मुरुओं आदि को अनेक पट्टे परवाने आदि भी मिलते रहे हैं। अमरचन्द सुराना-बीकानेर के एक प्रतिष्ठित ओसवाल कुल में उत्पन्न हुए थे और बीकानेर नरेश सूरतसिंह (1787-1828 ई.) के राज्यकाल में विशेष उत्कर्ष को प्राप्त हुए। महाराज ने 1804 ई. में इन्हें भटनेर के भट्टी सरदार जाब्ता खाँ के विरुद्ध सेना देकर भेजा था, अतएव अमरचन्द ने भरनेर पर आक्रमण किया और पौंच मास तक उस दुर्ग का घेरा डाले पड़े रहे। अन्ततः विवश होकर खान ने दुर्ग इन्हें सौंप दिया और अपने साथियों के साथ अन्यत्र चला गया। उनकी इस सफलता से प्रसन्न होकर महाराज ने इन्हें राज्य का दीवान बना दिया। जब 1808 ई. में जोधपुर नरेश के सेनापति इन्द्रराज सिंघवी ने बीकानेर पर आक्रमण किया तो उसका प्रतिरोध करने के लिए सूरतसिंह ने अमरचन्द सुरामा के नेतृत्व में सेना भेजी, किन्तु बापरी के उस युद्ध में इन्द्रराज विजयी हुआ। तथापि उक्त दोनों राज्यों में गजनेर में जो सन्धि हुई और जिसके अनुसार उक्त दोनों नरेशों में पूर्ववत् सौहार्द हुआ उसमें दोनों जैन सेनापतियों की उदाराशयता एवं दूरदर्शिता ही कार्यकारी हुई थी। अगले चार वर्ष अमरचन्द सुराना बीकानेर राज्य के उन विभिन्न ठाकुरों (सामन्तों) का दमन करने में व्यस्त रहा जी राजाज्ञा की अवहेलना करते थे और राजा की सत्ता की उपेक्षा करते थे। इस कार्य में दीशान ने आवश्यकता से अधिक कठोरता से कार्य लिया। अनेक की मृत्यु के घाट उतारा, अनेक को मन्दीगृह में डाला, अनेक से कड़ा जुर्माना वसूल किया। राजा अवश्य बहुत प्रसन्न हुआ और उसे राजमहल में अपने साथ भोजन करने की प्रतिष्ठा प्रान की। चूरू के ठाकुर शिवसिंह ने सिर उठाया तो 1815 ई. में राजाझा से अमरधन्द ने जाकर उसकी गढ़ी को घेर लिया, उसकी रसद बन्द 360 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ

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