Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 366
________________ . . ... 4 की पदवी से विभूषित हुए। सम्मान है कि वह नवाब के खास जोहरी तथा किसी उस्थ पद पर भी प्रतिष्ठित हुए हीं। उसी समय के लगभग खरतरगच्छाचार्य जिनचन्द्रसार को परम्परा के जिनअक्षयसार न सोधीटोला के बत्तिछत्ता में अपनी गद्दी स्थापित की और पार्श्वनाथ स्वामी का मन्दिर बनवाया जो इस नगर का सर्वप्राचीन श्वेताम्बर मन्दिर है। इन कार्यों में राजा बच्छराज नाहटा का पूरा प्रयत्न एवं सहयोग रहा प्रतीत होता है। इसी राज्यकाल के अन्त के लगभग लखनऊ नगर के श्रीसंघ ने, जिसमें 36 श्वेताम्बर श्रावक-श्राविकाएँ सम्मिलित थे, एक सचिन विज्ञप्ति-पत्र भेजकर दिल्ली से उक्त जिनअक्षयसूरि के गुरु भट्टारक जिनचन्द्रसूरि को सादर आमन्त्रित किया था। सम्भव है इस समय भी लखनऊ के श्रीसंघ के प्रमुखों में उक्त राजा बच्छराज नाहटा रहे हो। राजा हरसुखराय-- दिल्ली के मुसाल बादशाह शाहआलम द्वितीय (1759-1815 ई.) के समय शाही खजामी और बादशाह के जौहरी नियुक्त हुए थे। बादशाही तो नाममात्र की ही रह गयी थी, किन्तु उसकी पद-प्रतिष्ठा अभी भी बहुत कुछ बनी थी, अतः शाही खजांची के पद की भी काफ़ी प्रतिष्ठा थी। यो राजा साहब का मुख्य व्यवसाय अनेक छोटी-बड़ी रियासतों के साथ लेन-देन और साहुकारे का था। विशेष बाल यह थी कि वह बड़े धर्मात्मा, भारी मन्दिर निर्माता, निरभिमानी, उदार और दानी सज्जन थे। अनेक अभावग्रस्त साधर्मी बन्धुओं को वथोचित सहायता देकर उनका स्थितिकरण करने की, गुप्तदान देने की, सामाजिक मर्यादाओं और नैतिकता को प्रोत्साहन देने की, निज की ख्याति मान से दूर रहने आदि की अनेक किंवदन्तियाँ उनके सम्बन्ध से प्रचलित हैं। उनके पूर्वज अग्रवाल जैन साह दीपचन्द हिसार नगर के प्रसिद्ध सेठ थे। मुगल सम्राट शाहजी (1627-58 ई.) के समय में स्वयं बादशाह के निमन्त्रण पर वह दिल्ली (शाहजहानाबाद) में आकर बस गये थे। बादशाह ने उन्हें सात-पाचें की खिलअत (शिरोपाव) देकर सम्मानित किया था और दरीचे के सामने चार-पाँच बौधे भूमि प्रदान की थी, जिसपर उन्होंने अपने सोलह पुत्रों के लिए पृथक्-पृथक हलियाँ बनवायी थीं । साह दीपचन्द की पाँचवीं या छठी पीढ़ी में राजा हरसुखराय हुए थे। इन्होंने बादशाह अकबर द्वितीय (1806-36 ई.) के समय, 1807 ई. में, दिल्ली के धर्मपुरे मोहल्ले का वह अत्यन्त भव्य, कलापूर्ण एवं मनोरम जिनमन्दिर निर्माण कराया था जो सात वर्ष में बनकर तैयार हुआ था और जिसमें उस समय लगभग आठ लाख रुपये लागत आयी थी। यह मन्दिर नये मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने उक्त मन्दिर पर कहीं भी अपना नाम ऑकत नहीं कराया, अपितु उसमें बहुत साधारण-सा निर्माण कार्य शेष छोड़कर मसलहत से उसके लिए समाज से सार्वजनिक चन्दा किया और मन्दिर को पंचायती बना दिया। प्रायः इसी घटना की पुनरावृत्ति उन्होंने उसी समय के लगभग अपने द्वारा निर्मापित हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के विशाल जैन-मन्दिर के सम्बन्ध में की आधुनिक युग : अँगरेशों द्वारा शासित प्रदेश :: 373

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