Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 373
________________ S. कलकता लाये और स्वगुरु से उसे उक्त मन्दिर में प्रतिष्ठित कराया, अतएवं यह मन्दिर शीतलनाथ मन्दिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। राय बद्रीदास नहीं रहे और उनके कुल में भी कोई हैं या नहीं, किन्तु इस मन्दिर ने उनकी कीर्ति को अमर कर दिया। बम्बई के सेठ माणिकयन्द्र की प्रेरणा और सहयोग से उन्होंने एक अँगरेज़ द्वारा शिखरजी पर खोला गया सूअर का कारखाना बन्द करवा दिया था। उस धुरा के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर, उभयसमाजों के मेताओं के परस्पर सौहार्द एवं सहयोग का यह एक उदाहरण है। डिप्टी कालेराय-सुल्तानपुर (जिला सहारनपुर) निवासी गर्गगोत्री अग्रवाल जैन दूदराज के वंशज फूडेमल के तीन पुत्रों में से मझाये पत्र थे। 1804 ई. में इनका जन्म हुआ था। इनके पूर्वज पन्द्रहवीं शती में उस कस्बे में आ बसे थे और सम्राटू अकबर के समय से इस वंश के लोग कानूनगो होते आये थे, जमींदारी भी बना ली थी 1 इनके पिता कमल को 1803 ई. में अँगरेज अधिकारियों ने परमने का कानूनगो एवं चौधरी बनाया था और अन्त में तहसीलदार होकर 1828 ई. में उनकी मृत्यु हो गयी थी। उनके पुत्र कालेराय ने दस रुपये की साधारण सरकारी नौकरी से जीवन आरम्भ किया और उन्नति करते-करते डिप्टी कलक्टर बन गये तथा अन्त में पाँच सौ रुपया वेतन पाते थे। इन्होंने काफी जमीदारी पदो की, अनेक मकान, बाश आदि घमाये, कई जगह मन्दिर और धर्मशाला भी बनवायी। उत्तर प्रदेश और पंजाब के कई घिालों में इन्होंने राजस्व का बन्दोबस्त किया। बड़े ठाटबाट से रहते शे और अपने परिवारवालों एवं नाते-रिश्तेदारों की बराबर सहायता करते थे। सन् 1857 ई. में राजकीय संश से अवकाश लिया और 1860 ई. में इनका निधन हुआ। आजकल डिप्टी कलक्टर का पद विशेष महत्त्व नहीं रखता, किन्तु उस पुष में और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ पर्यन्त एक भारतीय के लिए इस पद पर पहुँचना बड़ी बात समझी जाती थी। अतएच जैन डिप्टी कलक्टरों की परम्परा में कालेराय के बाद मेरठ के डिप्टी उजागरमल, नहटौर के डिप्टी मन्दकिशोर, कानपुर के डिप्टी धम्पत्तराय आदि नाम उल्लेखनीय हैं। पण्डित प्रभुदास-बिहार प्रान्तस्थ आसनगर के अग्रवाल जन सम्पन्न जमींदार थे, साथ ही बड़े धर्मनिष्ठ, संस्कृतज्ञ, शास्त्रज्ञा, चरित्रवान्, 'दानी और उदारमना सम्जन थे। अपनी विद्वत्ता के कारण बाबू के स्थान में पण्डित कहलाने लगे थे। इन्होंने 1956 ई. में वाराणसी में गंगानदी के भदैनी घाट पर सुपायनाय का मन्दिर और धर्मशाला बनवायी थी और उसी समय के लगभष भगवान् चन्द्रप्रभु की जन्मभूमि चन्द्रपुरी में भी गंमातट पर जिनमन्दिर बनवाया था। छहढाला (1834) के रचयिता प्रसिद्ध आध्यात्मिक सन्त पण्डित दौलतरामजी (1800-1886 ई.) के भी सम्पर्क में आये और उनका बहुत आदर करते थे। प्रभुदासजी इतने दृढव्रती थे कि चालीस वर्ष पर्यन्त निरन्तर एकाहारी रहे । उनका निधन चौंसठ वर्ष की आयु में हुआ। उनके एकमात्र 980 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ

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