Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ शिखरजी के मुकदमे का तो उन्होंने बीड़ा ही उठा लिया था। सहारनपुर में एक मन्दिर चनवाया, संस्कृत-विधालय स्थापित किया जिसमें न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्द्र ने वर्षों अध्यापन किया और जो अब एक उन्नत डिग्री कॉलेज है। 1925 ई. में दिल्ली की पूजा में सम्मिलित होकर हाथी की सवारी और सचित्ताहार का आजन्म त्याग कर दिया । ब्रह्मचर्यव्रत 1921 ई. में ही ले चुके थे। नित्य देव पूजा का नियम था। सरकार ने सयवहादुर आदि उपाधि देनी चाही तो अस्वीकार कर दी। किसी अफसर से मिलने नहीं जाते थे। पण्डित पन्नालाल न्यायादेवाकर और मेरठ के लाला धूमसिंह उनके अभिन्न साथी थे। उनकी तीर्थसेवा के लिए समाज ने उन्हें तीर्थ-भक्त-शिरोमणि की उपाधि प्रदान की थी। बड़े सुदर्शन तेजस्वी और धर्मात्मा सज्जन थे। उनका निधन 1923 ई. में हुआ। उनके भाई दीपचन्द भी बड़े धमात्मा थे तथा धर्मप्रेमी मोहरसिंह खजांची के भतीजे और घूमसिंह के पत्र रा.ब, आंजतप्रसाद भी वार्षिक सजन थे। रायबहादुर हुलासराय मा लाला जम्बूप्रसाद कुरवी थे राजा बाहादुरसिंह सिंधी-कलकत्ते के सेठ डालचन्द सिंघी के सुपुत्र प्रसिद्ध जौहरी, रईस और जमींदार थे, साथ ही बड़े धर्मप्रेमी एवं विद्याप्रेमी भी थे। इन्होंने सिंधी-ग्रन्थमाला की स्थापना की तथा अनेक धार्मिक एवं लोकोपयोगी कार्य किये। इन्हें सरकार से राजा की उपाधि प्राप्त हुई थी। महिलारत्न मगनवेन-बम्बई के सुप्रसिद्ध समाज-हितैषी, दानवीर सेठ पाणिकचन्द जे.पी. की सुशीला, मेधावी एवं अत्यन्त प्रिय पुत्री थीं। इनका जन्म 1879 ई. में हुआ, विवाह 1892 ई. में खेमचन्द के साथ हुआ, 1897 ई. में धुत्री केशरवन का जन्म हुआ और देवपिाक से 184368 ई. में मात्र १५ वर्ष की आरए में वह विधवा हो गयीं। किन्तु सुयोग्य पिता की सुयोग्य सन्तान थीं। पिता के सहयोग से विद्याध्ययन में मन लगाया, धर्म को सम्बल बनाया और नारी-जगत की शिक्षा, सेवा एवं उद्धार में जीवन अर्पण कर दिया। पण्डित लालन और लखनऊ के ब्राह्मचारी शीतलप्रसाद ने उनके विद्याभ्यास में सहायता की और समाजसेवा की भावना को प्रोत्साहित किया। फल यह हुआ कि 1906 ई. में उन्होंने बम्बई में सुव्यवस्थित श्राविकाथम स्थापित किया और तदनन्तर भिन्न-भिन्न स्थानों में तीलियों श्राविकाश्रम स्थापित कराये और महिला परिषदें स्थापित की। ललिताबाई और संकुलाई इनकी सहयोगिनी थीं। काशी के 1919 ई. के महोत्सव में इन्हें 'जैन-महिलारल' की उपाधि समाज ने प्रदान की, बम्बई प्रशासन ने आनरेरी जे.पी. बनाया; और 1937 ई. में इस जैन-महिलारल का स्वर्गवास हुआ। ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद और बैरिस्टर चम्पसराय इनको अन्त्येष्टि में सम्मिलित हुए थे। सर मोतीसागर-दिल्ली के प्रसिद्ध रईस एवं अपने समय के बर्थस्थी शिक्षा शास्त्री रायवक्षार सागरचन्द के सुगन्न मोतीसागर दिल्ली के एक सामान्य वकील के रूप में जीवन प्रारम्भ करके अपने परिश्रम, नेकनोवती एवं सहा जात 388 :. प्रमुख तिहासिक जैन पुरुष और महिलारी

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