Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 365
________________ भवानीदास चौधरी -उपनाम भवानी दादू मंजु चौधरी का भानजा था और उनके पद पर उनके उपरान्त प्रतिष्ठित हुआ। मंजु चौधरी का एकमात्र पुत्र लक्ष्मण अयोग्य और निकम्मा था, अतएव नागपुर और कटक के दरबारों ने भवानी दादू को ही सौधारित छत्तराधिकारी शिवज विकास शाह यह जीति कुशल, कार्यदक्ष और विद्याप्रेमी था, मामा की पुण्याधिकारी' उपाधि भी इसके नाम के साथ प्रयुक्त होती थी। उसने अपने दक्षिणी ब्राह्मण अनुचर गोपाल यसित से 1787 ई. में 'पुण्यासद कथाकोश' की प्रति लिखायी थी। चौधरी के पुत्र लक्ष्मण ने अपना हक पास जाने से क्षुब्ध होकर अंगरेजों की सहायता लेने का प्रयत्न किया। इन दिनों अँगरेजों की शक्ति और प्रभाव द्रुत वेग से फैलते जा रहे थे, किन्तु लक्ष्मण के सकल प्रयत्न होने के पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गयी। कहते हैं कि भवानी दादू ने विष द्वारा उसकी हत्या करा दी थी। स्वयं भवानी दादू की भी 1800 ई. के कुछ पूर्व ही निस्सन्तान मृत्यु हो गयी और उसका छोटा भाई तुलसी दादू चौधरी हुआ, किन्तु वह मंजु और भवानी जैसा योग्य नहीं था। सन् 1803 ई. के अन्त के लगभग अंगरेजों द्वास उड़ीसा दखल कर लिये जाने पर भोंसला राजा और कटक के मुकुन्ददेव के अधिकारों का अन्त हुआ और साथ ही तुलसी चौधरी की चौघराहट का भी अन्स हो गया। चम्पो बाई ने जो भवानी दादू या तुलसी दादू की पत्नी थी, 1784 और 1805 ई. में लला-बजाज द्वारा दो ग्रन्यों की प्रतिलिपियों करायी थीं। जिनदास कवि ने 4805 ई. में खण्डगिरि की ससंघ यात्रा और चौधरी परिवार द्वारा वहाँ कराये वार्षिक उत्सव का तथा मंजु चौधरी द्वारा निमापित शिखरबन्द मन्दिर का सुन्दर वर्णन किया था। तुलसी दादू की दो पुत्रियाँ थीं, जिनमें से छोटी मुक्ताबाई थी। उसकी पुत्री सोनामाई का विवाह हीरालाल मोदी के साथ हुआ था, जिसने 1840 ई. में पचास धार्मिक रचनाओं के संग्रह की प्रतिलिपि करायी थी। उसकी पावज धूमाबाई ने उसी समय के लगभग खण्डगिरि का छोटा मन्दिर बनवाया था। हीरालाल की मृत्यु के पश्चात् सोनाबाई ने अपने देवर मत्यूबाबू के पुत्र ईश्वरलाल को गोद लिया। ईश्वरलाल और उनके पुत्र कपूरचन्द 1912 ई. में विद्यमान थे और कपूरचन्द के पुत्र या पीत्र कुंजलाल चौधरी हुए। राजा बच्छराज नाइटा-अवध के चौथे मवाब आसफुहोला (1775-1797 ई.) ने अपने पूर्वजों की राजधानी फैजाबाद का परित्याग करके लखनऊ को अपनी राजधानी बनाया था। तभी से लखनऊ के विस्तार, सौन्दर्य, वैभर और व्यापार की वृद्धि प्रारम्भ हुई और कुछ ही वर्षों में उसकी गणना भारतवर्ष के प्रसिद्ध एवं दर्शनीय नगरों में होने लगी। महानगरी दिल्ली की चकाचौंध भी उसके सामने फीकी पड़ने लगी। स्वभावतः अनेक अग्नवाल एवं ओसवाल जैन व्यापारी, जौहरी आदि भी बाहर से आकर यहीं बसने लगे। सम्भवतया इन्हीं ओसयास्त जौहरियों में मच्छराज नाहटा थे जो शीघ्र ही अपनी समाज के प्रमुखों में तथा राज्यमान्य भी हो गये और 'राजा' 372 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ

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