Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 357
________________ .: माता " . . . अमरचन्द के पिता थे। यह 1777 से 1830 ई. तक राज्य के दीवान रहे ! बड़े बीर, धर्मात्मा, शास्त्रज्ञ और साहित्यप्रेमी सज्जन थे। जयपुर में मनिहारों के रास्ते का 'बड़े दीवान जी का मन्दिर' इन्हीं के द्वारा 1792 ई. में यनवाया गया था। अनेक ग्रन्थों को प्रतिलिपियों भी इन्होंने करायी थी | SA T TA गंगाराम महाजन- कालूराम महाजन के पुत्र थे और 1788 से 1788 ई. तक दीवान रहे। मागधन्द-सीताराम के पुत्र थे और 1785 से 1789 ई. तक दीवान रहे। भगतराम बगड़ा-सुखराम बगड़ा के पुत्र थे और 1785 से 1828 ई. तक दीवान रहे। यह बड़े उदार सज्जन थे। इन्होंने पहाड़ी पर शान्तिनाथजी की खोह में लगभग तीन लाख रुपया लगाकर अनेक निर्माण कार्य करावे थे, जिनमें तियारा-भर्तृहरि एवं शिवालय भी थे और 1807 ई. में एक सुन्दर बावड़ी भी बनवायी थी। राव भवानीराम-राव कृपाराम के भतीजे और फतहराम के पुत्र थे तथा 1786 से 1799 ई. तक दीवान रहे। साहित्यिक रुचि, चतुरविनोद के रचयिता और ज्योतिर्विज्ञ थे। राव जाखीराम-राव भवानीराम के पुत्र थे। इन्होंने राज्य की काफी सेवा की, दीवान भी रहे प्रतीत होते हैं। पण्डित सदासुख कासलीवाल-जयपुर निवासी डेडराज के वंशज दुलीचन्द के सुपुत्र थे। इनका जन्म 1795 ई. के लगभग हुआ था। यह थे तो राज्य की सेका में, किन्तु किसी साधारण से पद पर अल्प वेतन में ही सन्तुष्ट रहकर कार्य करते थे। राज्यकार्य के अतिरिक्त इनका प्रायः पूरा समय जिनवाणी के पठन-पाठन, सैद्धान्तिक चर्चाओं, साहित्य के सूजन और धर्म एवं समाज की सेवा में ही व्यतीत होता था। इनकी शास्त्र-प्रवचन शैली इतनी मृद, सरल और प्रभावक होती थी कि श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। रत्नकरण्ड-श्रावकाधार-वधनिका और अर्थ-प्रकाशिका (तत्वार्थसूत्र की भाषावनिका) इनकी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कृतियाँ हैं। पण्डितप्रवर जयचन्द छाबड़ा और मुन्नालाल साँगा इनके गुरु थे और पण्डित पन्नालाल संधी दूनीवाले, नाथूलाल दोसी, पारसदास निगोत्या, सेठ मूलचन्द सोनी आदि इनके भक्त शिष्य थे। सन्तोषी ऐसे थे कि राजा माधोसिंह ने इनके वेतन में वृद्धि करने का विचार प्रकट किया तो इन्होंने कहा कि महाराज, वेतन वृद्धि न करके यदि उन्हें समय से एक दो घण्टा पूर्व चले जाने की अनुमति प्रदान कर दें तो बड़ी कृपा होगी, क्योंकि उस समय का आत्मसाधन और साहित्य सृजन में उपयोग किया जा सकेगा। राजा आश्चर्यचकित रह गये, प्रसन्न भी हुए, उनको बेतम-वृद्धि भी कर दी और समय से पूर्व चले जाने की अनुमति भी दे दी। वृद्धावस्था में 1864 ई. में इनके इकलौते सुयोग्य बीसवर्षीय पुत्र गणेशलाल का असामयिक निधन हो गया तो इन्हें बड़ा धक्का लगा। ऐसे में इनके भक्त अजमेर के सेठ मूलचन्द सोनी इन्हें अपने . . sinstinidioanimatictionaristiani...........:.indina 364 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ i

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