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करायी थी। मैसूर नरेश मुम्मुडि कृष्णाराज ओडेयर के आश्रित वैधसूरि पण्डित की प्रेरणा से इन्होंने कन्नड़ी भाषा का अपना प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ 'राजावलिको लिखना प्रारम्भ किया और 1841 ई. में महारानी रम्भा को समर्पित किया था । दक्षिण देश में प्रचलित शक संक्त को विक्रम संवत्त मानकर महावीर निर्वाण संस्तु के वर्षों में 195 की वृद्धि करनेवाली मान्यता के प्रमुख पोषकों में यह देवचन्द्र पण्डित भी
___E856 ई. में श्रवणबेलगोल के मन में मठाधीश चासकीर्ति शुरू के अन्तेवासी सन्मति सागर वर्णी ने धरणेन्द्र शास्त्री द्वारा तीर्थंकर अनन्तनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित कसषी थी, जैसा कि उक्त प्रतिमा के प्रभामण्डल की पीठ पर अंकित लेख से प्रकट है। उक्त वर्णीखी ने 1858 ई. में तंजोनिवासी श्रावकों आदिनाथ एवं गोपाल से बाहुबलि की एक प्रतिमा, वहीं के श्रावक पेरुमाल से पंचपरमेष्टि की प्रतिमा, श्रावक शन्तिरमा से चौदह तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ आदि प्रतिष्ठित करायी
थी।
कुमार वीरप्प-पैनगोंडा के सेनसंघाचार्य लक्ष्मीसेन के गृहस्थ-शिध्व, यिदगूर के पहणसेट्टि (नगरसेठ) वीरप्प का पौत्र और अन्नप्य सेठ का पुत्र कुमार वीरप्प हजूर-मोतीखाने (भैसूरमरेश के मुक्ताभण्डार) का अध्यक्ष था। उसका छोटा भाई तिम्मप्प था। इन दोनों भाइयों ने 187 ई. में शालिग्राम में एक नवीन जिनालय बनवाकर उसमें भगवान अनन्तनाथ की प्रतिष्ठापना की थी।
उदयपुर (मेवाड़)
बेहता अगरचन्द बच्छावत मेवाडोद्धारक भामाशाह बीकानेर के प्रसिद्ध मन्त्री कर्मचन्द बच्छावत के समधी थे। उनकी पुत्री कर्मचन्द के एक पुत्र के साथ क्विाही थीं। जब बीकानेर में बच्चायतों का संहार हुआ तो वह अपने मायके उदयपुर में थी और उसके पुत्र भोजराज की पत्नी अपने मायके किशनगढ़ में थी। भोजराज का पुत्र भाण था जो अपनी पिताम्बही के पास उदयपुर चला आया। उसका पुत्र जीवराज हुआ जिसका पुत्र लालचन्द था। इसका प्रपौत्र पृथ्वीराज हुआ जिसके अगरचन्द और हंसराज नाम के दो पुत्र हुए। यह दोनों भाई उदयपुरराज्य में उथ पदों पर प्रतिष्ठित हुए। राणा अरिसिंह द्वितीय ने अयरचन्द बहावल को माण्डलगढ़ का दुर्गपाल तथा उस पिले का शासनाधिकारी भी नियुक्त किया 1 उसके वंशज भी उस महत्वपूर्ण दुर्ग के क्रमागत किलेदार होते रहे। किन्तु वह स्वयं उक्त पद से उम्नति करते-करते राणा का एक प्रमुख मन्त्री बन गया । सिन्धिया के साथ हुए राणा के युद्ध में अगरचन्द ने भाग लिया, घायल हुआ और मराठों के हाथों बन्दी हुआ, किन्तु अपने हितू बावरी लोगों की चतुराई से उस कैद से निकल भागा। सिन्धिया ने जब उदयपुर का घेरा डाला तब भी वह राणा के साथ युद्ध में सबसे आगे था।
$50 :: प्रमुरत ऐतिपसिक जैन पुरुष और महिलाएँ