Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 348
________________ मेहता नाथजी-इसके पूर्वज मूलतः सोलंकी राजपूत थे जो वीं शती के लगभग जैनधर्म अंगीकार करके भण्डसालीगोत्री ओसवाल हुए। इस वंश में थिरुशाह भण्डसाली प्रसिद्ध हुआ। उसके एक वंशज चीलजी को महत्वपूर्ण राज्यसेवा के उपलक्ष्य में मेहता की पदवी मिली। उसका चशज जालजी मेहता राणा हमीर की सनी का कामदार (निजी सचिव) था और उसके मायके से ही उसके साथ आया था। यहाँ आकर उसने और उसके वंशजों ने राज्य की बड़ी सेवा की और पुरस्कार स्वरूप जागीरें भी मिली जो वश में परम्परागत चलती रही। माथा महता उदयपुर के निकटस्थ देवाली गांव में रहता था जहाँ से वह कोटा चला गया और वहाँ के राजा की सेवा में रहते हुए कोटाराज्य से कुछ पूमियाँ, कुएं आदि प्राप्त किये। तदनन्तर 1850 ई. के लगभग वह उदयपुर राज्य के माण्डलगढ़ दुर्ग में चला आया और दुर्गरक्षक सेना का अधिकारी हुआ तथा नवलपुरा ग्राय जागीर में पाया। दुर्ग की कोट पर उसने एक बुर्ज बनवायी थी जो नाथबुर्ज कहलाती है और दुर्ग में एक जिनमन्दिर भी बनवाया था। नाथजी बड़ा वीर और साहसी था और अनेक युद्धों में उसने भाग लिया था। मेहता लक्ष्मीचन्द “नाथजी का वीर पुत्र और सम्भवतया माण्डलगढ़ में उसका सहायक, तदनन्तर उत्तराधिकारी रहा। अपने पिता के साथ उसने कई युद्धों में भाग लिया था और अन्त में खापरौल के युद्ध (घाटे) में वीरगति पायी थी। मेहता जोरावरसिंह और जवानसिंह-मेहता लक्ष्मीचन्द्र की मृत्यु के समय उसके नन्हे बालक पुत्र थे। घर में धनाभाव था किन्तु उनकी माता बड़ी बुद्धिमती, कर्मठ और स्वाभिमानिनी थी। उसके भाई ने बहन और मानकों को अपने घर ले जाने का आग्रह किया तो उस वीरपत्नी ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि यहाँ अपने घर रहने पर तो उसके पुत्र अपने पिता के नाम से पुकारे जाएँगे और मामा के घर रहने से 'अमुक के भानजे हैं। इस रूप में पुकारे गाएँगे जो उसके श्वसुर के कुल-गौरव के विपरीत होगा। बड़ा कष्ट उठाकर उसने अपने पुत्रों का पालन-पोषण किया और बड़े होकर वे राज्यसेवा में नियुक्त हुए। जोरावरसिंह तो उदयपुर के दीवान मेहता रामसिंह की नासप्तमी के कारण व्यावर चला गया, वहीं उसकी मृत्यु हो गयी, उसका अनुज जवानसिंह बड़ा बुद्धिमानू और पुरुषार्थी था। राज्यसेवा में उसने प्रभुत उन्नति की। कहते हैं कि दस-बीस व्यक्तियों को साथ लिये बिना उसने कभी भोजन नहीं किया। कई राजपूत सरदार उसके साथ रहते थे। राणा से भी उसने कई बार सिरोपाव आदि प्राप्त किये थे और अपनी नवलपुरा की पैतृक जागीर भी, जो बीच में जप्त हो गयी थी, पुनः प्राप्त कर ली। वह माण्डलगढ़ में अपने पैतृक पद पर प्रतिष्ठित था। एक बार उसने अनेक सशस्त्र डाकुओं को उनकी बनी में जाकर और भीषण युद्ध करके अकेले ही कुचल दिया था। मात्र 39 वर्ष आधुनिक युग : देशी राज्य :: 355

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