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मृगेशवर्मन कदम्ब (450-478 ई.)--शासिवन को पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। उसने अपने राज्य के तीसरे घर्ष में भगवान् जिनेन्द्र के अभिषेक, उपलेपन, पूजन, मन्दिर के भग्नसंस्कार (मरम्मत आदि) और धर्म की प्रभावना आदि कार्यों के लिए दानकीर्ति भोजक को भूमिदान दिया था-एक निवर्तन भूमि तो केवल पुष्यों के लिए ही निर्दिष्ट की गयी थी। एक अभ्य लेख के अनुसार कदम्बवंशी धर्म महाराज 'श्रीविजयशिवमृमेशवर्मन' ने अपने राज्य के चौथे वर्ष में कालथंग समक ग्राम तीन भागों में विभक्त करके एक भाग तो अर्हतशाला में विराजमान भगवान् जिनेन्द्रदेव के निमित्त, दूसरा भाग श्वेतपष्ट-महाश्रमणसंघ के उपभोग के लिए और तीसरा भाग निन्ध-महाश्रमसंघ के उपभोग के लिए दान किया था। दान का लेखक नरपर सेनापति था। रामा के नाम और लेख की शैली आदि में जो अन्दर लक्षित है उनपर से कुछ विद्वानों का अनुमान है कि शायद यह राजा पूर्वोक्त मृगेशवर्मन से भिन्न और उसका पर्याप्त उत्सरवती कोई अन्य कदम्ब नरेश है। जो हो, इस दान का दाता परम जैन था, इसमें सन्देह नहीं है। स्वयं के कथनानुसार यह उभयलोक की दृष्टि से प्रिय एवं हितकर अनेक शास्त्रों के अर्थ तथा तस्वविज्ञान के विवेचन में बड़ा उदारमति था। गजारोहण, अश्वारोहण आदि व्यायामों में वह सुदक्ष था। नय-विनय में कुशल था, उदात्तबुद्धि-धैर्य-वीर्य-त्याग-सम्पन्न था, अपने भुजबल एवं पराक्रम द्वारा संग्राम में विजय प्राप्त करके उसने विपुल ऐश्वर्य प्राप्त किया था। प्रष्ट प्रजापालक था, देव, द्विज, गुरु और साधुजनों को दानादि से नित्य सन्तुष्ट करता था, विद्वानों, स्वजनों और सामान्यजनों का समान रूप से प्रश्रयदाता था, और आदिकालीन भरतचक्री प्रभृति राजाओं की प्रवृत्ति के अनुसार धर्म-महाराज था। अपने राज्य के आठवें वर्ष में शान्तिवर्म के ज्येष्ठ पुत्र मृगेश-नृप में अपने स्वर्गस्थ पिसा की भक्ति के लिए (उसकी स्मृति में) राजधानी पलाशिका में एक जिनालय निर्माण कराया था, जिसका प्रवन्ध उसने वैजयन्ती निवासी दामकीर्ति भोजक को सौंप दिया था और एतदर्थ दान दिया था। इसी अवसर पर इस नरेश ने यापनीय, निर्गन्ध और कूर्वक सम्प्रदायों के जैन साधुओं को भी भूमि-दान दिया था। इन अभिलेखों से प्रकार है कि एकाकी जैन साधुओं का ही नहीं, वरन् उनके चिमिन्न सुसंगठित संघों और सम्प्रदायों का भी उस काल में कदम्ब राज्य में निवास था। दान प्राप्त करने वालों में प्रमुख समधानी दैजयन्ती का निकासी दामकीर्ति भोजक है जो श्रुतकीर्ति भोजक का उत्तराधिकारी है। आगे भी यह परम्परा चली है। ऐसा लगता है कि श्रुतकीर्ति और उनके वंशज दामकीर्ति, श्रीकीर्ति, बन्धुषेण आदि भोजक नामधारी जैन पण्डित गृहस्थाचार्य सरीखे थे। वे प्रधान जिनमन्दिरों के प्रबन्धक और पुजारी तथा कदम्ब नरेशों के राजगुरु थे, कम से कम उनके आश्रय दाता सजाओं में से जैन थे। मृगेशवर्मन युद्धवीर और पराक्रमी भी था। यद्यपि उसके चचा कृष्णवर्मन ने विद्रोह करके एक शाखा-राज्य (त्रिपर्वत) स्थापित कर लिया था,
102 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिला