Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 286
________________ वर्षों के भी कई यात्रा-लेख हैं। विरूपाक्षराव की राजसभा में उभर विहान एवं महान वादी विशालकीर्ति ने अजैन वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित करके राजा से जयपत्र प्राप्त किया था। इन्हीं आचार्य ने राज्य के एक प्रमुख सामन्त, अरग के शासक, देवप्प इ इनाथ की सभा में जनदर्शन पर महत्त्वपूर्ण व्याख्यान देकर ब्राह्मण विद्वानों की भी विनय एवं श्रद्धा प्राप्त कर ली थी। अनेक जैन गृहस्थ एवं मुनि विद्वानों द्वारा इस काल में भी साहित्य की अभिवृद्धि हुई। गोम्मदेश का महामस्तकाभिषेक. 1500 ई. में असंख्य जनसमुह की उपस्थिति में बड़े समारोहपूर्वक हुआ। राज्य की ओर से उसके लिए समस्त सुविधाएँ प्रदान कर दी गयी थी। इसी काल में 1182 ई. में हारने के देवप्प के पुत्र चन्दप ने हरवे बसदि के अपने कुलदेवता आदि-परमेश्वर की पूजा एवं चतुर्विधदान के लिए अपने कुटम्धीजनों की अनुमति से भूमि का दान दिया था और 1492 ई. में मलेवूर के दिमणसहि के पुत्र ने कनकगिरि पर विजयनाथदेव की दीप-आरती की सेवा के लिए द्रव्य दान दिया था और 1500 ई. में पण्डितदेव के शिष्यों नामगोंड, कलगोंड आदि कई गीड़ों में बेलगोल की मंगायि बसदि के लिए भूमिदान दिया था। सम्राट् कृष्णा देवराय (1309-39 ई.)-विजयनगर के नरेशों में वह सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतापी और महान समझा जाता है। उसके समय में यह साम्राज्य अपनी शक्ति, विस्तार एवं वैभव के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। अपने पूर्ववर्ती नरेशों की भाँति वह भी सर्वधर्म समदर्शी था। उसने स्वयं 1516 ई. में चिंगलपुट जिले में स्थित त्रैलोक्यनाथ बसदि को दो ग्राम भेट दिये थे और 1919 ई. में पुनः उसी जिनालय का दान दिया था। कोल्लारगण के मुनिचन्द्रदेव के समाधिमरण के उपरान्त 1818 ई. में उनके शिष्य अपदिदास में मलेयूर में उनका स्मारक बनवाया था, विद्यानन्दोपाध्याय में प्रशस्ति श्लोक रचे थे और वृषभदासपी ने उसे लिखा था। स्वयं सम्राट ने 1528 ई. में बेलारी जिले के एक जिनालय के लिए प्रभूत दान दिया था और तत्सम्बन्धी शिलालेख ओकत कराया था तथा मूडबिद्री की गुरु बसदि को भी स्थायी वृत्ति दी थी। सन 1530 ई. के एक शिलालेख में स्थावादमत और जिनेन्द्र के साथ-साथ आदि-वराह और शम्भु को नमस्कार किया जाना इस नरेश द्वारा राज्य की परम्पसनीति के अनुसरग का परिचायक है। हुम्मच के पद्मावती मन्दिर में अंकित प्रायः उसी समय की बादी विद्यानन्द स्वाभी की प्रशस्ति से प्रकट है कि यह जैन गुरु अपनी विश्वत्ता, वाग्मिता और प्रभाव के लिए उस काल में सर्वप्रसिद्ध थे। महाराज कृष्णदेवराय की राजसभा में विभिन्न देशों एवं मतों के विद्वानों के साथ कई बार सफल शास्त्रार्थ करके उन्होंने ख्याति अर्जित की थी। स्वयं सम्राट् उनका बड़ा आदर करता था और उनके चरणों में मस्तक झुकाता था। नजरायपट्टन के नंजभूप. श्रीरंगनगर के पेरंगि (फिरंगी-ईसाइयों), संगीतापुर के सालुवेन्द्र, मल्लिराय, सागराय और देवराय, विलिग के कलशवंशी नरसिंह, कारकल के भैरव भूपाल इत्यादि पध्याकाल : पूर्वाध :: 233

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