Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 308
________________ MINIMImeans पाण्डित्य की प्रशंसा सुनकर बनारसीदास की माइली के सब अध्यात्मी उनसे जाकर मिले और विनयपूर्वक इनसे गोम्मरसार का प्रवचन कराया, जिसे सुनकर बनारसीदास और उनके साथी, जो तबतक निश्चय-एकान्त में भटक रहे थे, अपनी दृष्टि को समीचीन और स्याद्वादमथी बनाने में सफल हुए थे। वीरजीहोरा (1619-1670 ई.)-सूरत का यह गुजराती जैन संठ अपने समय का आयात-निर्यात का सर्वप्रमुख भारतीय व्यापारी था। पश्चिमी समुद्रतटवर्ती सूरत नगर उस काल में अरब सागर का प्रायः सबसे बड़ा बन्दरगाह तथा विदेशी व्यापार की प्रधान मण्डी था और वीरजीवोरा वहाँ का सबसे बड़ा व्यापारी था। सूरत का ही नहीं, मालाबारतट का अधिकांश व्यापार उसके नियन्त्रण में था। आगरा, बुरहानपुर, गोलकुण्डा आदि सुदूर स्थित प्रमुख व्यापार केन्द्रों में उसकी गहियाँ थीं और पश्चिम में फारस की खाड़ी और दक्षिणपूर्व में भारतीय द्वीपसमूह पर्वन्त उसका व्यापार फैला था। अरब, पुर्तगाली, अंगरेज, डच, फ्रांसीसी आदि विदेशी व्यापारी उसकी कृपा पर अवलम्बित रहते थे । उक्त विदेशियों के कथनानुसार ही यह भारतीय सेट अपने समय में सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा धनवान समझा जाता था। थेवेनाट नामक एक तत्कालीन अमुम्बमारी का कर तो लाख स्वर्ण मुद्राओं का धनी था अर्थात कोट्याधीश ही था। वह उस काल की बात है जब एक रुपये {40 दाम) में लगभग 2 मन गेहूँ, 3 मन जौ, बंगाल में 4-5 मन चावल मिलता था, और एलेप्पो से आगरा तक की 10 महीने की लम्बी यात्रा में खाने-पीने एवं सफर का सब खर्च कुल मिलाकर सायरन (40-50 रुपये) लगता था। वीरजीमोरा और उसकी पुत्री फूलाबाई लोकाशाह द्वारा स्थापित होकागच्छ के अनुयायी हो गये थे। फूलौंबाई का इत्तक पुत्र लवजी था। वह पढ़ा-लिला युवक था। उसे जब वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने संयम लेने के लिए अपने नाना वीरजी से आज्ञा माँगी तो वीरजी ने कहा बताया जाता है कि लोंकागच्छ में दीक्षा ले तो आज्ञा देंगे। अतएव तवजी ने 1652 ई. में बजरंगजी से दीक्षा ली। उनके निकट सूत्रों का अध्ययन किया और लोंकागच्छ का चौथा या पाँचया पट्टधर हुआ। इन्हीं लक्जी या लयणऋषि को ढूंढ़ियामत का प्रवर्तक कहा जाता है। हेमराज पाटनी बाग्वर (बागड़) देशस्थ सागपत्तन (सागवाड़ा) निवासी पाटनी गोत्री खण्डेलवाल जैन रेखा सेठ के पुत्र तेजपाल, हेमराज और धनराम थे। ये भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति की आम्नाय के श्रावक थे और मगधदेश के गंगातटवर्ती पाटलिपुत्र (पटना) नगर में निवास करते थे। हीरासेठ की भतीजी हमीरदे हेमराज की भार्या थी। हेमराज सेठ के साथ सकलचन्द्र के शिष्य भट्टारक रनचन्द्र ने सम्मेदशिखर को यात्रा की थी। साथ में अन्य अनेक खण्डेलवाल, अग्रवाल, जैस्वाल आदि धर्मात्मा एवं दानी श्रावक थे जो भट्टारक रमचन्द्र के भक्त थे। यात्रा से लौटकर पटना में सुदर्शन-सेठ के मन्दिर में निवास करते हुए सेठ हेमराज की प्रार्थना पर पण्डित मध्यकाल : उत्तरार्ध :: 315

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