Book Title: Pramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 338
________________ फाला नदी के रेल में गहरे दबवा दिया। उसे यह ममोन, सुलक्षण 3 फुट उत्तुंग, खड्गासन भगवान् गोमटेश की प्रतिमा प्राणों से अधिक प्रिय थी। विपुल द्रष्य व्यय करके अत्यन्त कुशल मूर्तिकार शिल्पियों से उसका निर्माण कराया था श्रवणबेलगोल के पीठाचार्य घातकीर्ति महाराज का आशीवाद उसे प्राप्त था। उन्हीं के उपदेश से उसने यह शुभ संकल्प किया था। अन्ततः वीर तिम्मराज का स्वप्न साकार हुआ और 1504 ई. की मार्च मास की प्रथम तिथि, गुरुवार को मध्याह्न काल में चेनूर के सुप्रसिद्ध गोम्मटेश बाहर्वाल की प्रतिष्ठापना घड़े समारोहपूर्वक हुई। यह काटक की तीसरी विशाल बाहुबलि मूर्ति है। मोम्मटेश मूर्ति के सामनेवाले द्वार के दोनों पायों में दो छोटे मन्दिर हैं, जो तिमाल की दो रानियों ने इनवाये थे। इनमें से पूर्व दिशावाला चन्द्रप्रभ का है और पश्चिम दिशामाला शान्तिनाथ का है। मूर्ति के पीछे की ओर सड़क के उस पार प्राचीन पाश्र्व जिनालय है। वेनूर में लिभराज के एक पूर्वज द्वारा 1480 ई. के लगभग निर्मित शान्तीश्वर-वसाद है, जिसके दाहिने और खायें दो अन्ध मन्दिर हैं। दक्षिण ओर बालमन्दिर तीर्थकर-बसदि कहलाता है। इसमें चौबीसों तीर्थकरों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। पूरा मन्दिर पाषाण निर्मित है और उसपर उत्खनित मूकिन दक्षिण कनारा प्रदेश में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। इस मन्दिर के प्राकार के सम्मुख एक सुन्दर मानस्तम्भ विद्यमान है। तिम्मराज स्वयं प्रतापी और कुशल प्रशासक था और उसके शासनकाल में राज्य का प्रभूत उत्कर्ष हुआ। धेनूर राज्य का प्रदेश पुजालके भी कहलाता था। तिम्मराज के पश्चात् उसकी भानजी मधुरिकादेवी गद्दी पर पड़ी और उसने 1610 से 1147 ई. तक शासन किया। अपने राज्यकाल में उसने, सम्भवतया 1654 ई. में, धनूर के गोम्मदेश का महामस्तकाभिषेक महोत्सय किया था। इस अवसर पर भी कारकल के सत्कालीन नरेश ने विरोध किया और उत्सव को रोकने के लिए देनूर पर चढ़ाई कर दी, किन्तु अपने पूर्वज की भाँति उसे भी विफल मनोरथ होकर लौटना पड़ा। तदनन्तर कई अन्य शासक येनूर की गादी पर क्रमश: बैठे जिनमें एक धर्मात्मा रानी पद्मलादेवी थी। सन् 1764 ई. में मैसूर के नयाव हैदरअली ने इस राक्य को समाप्त करके उसपर अधिकार कर लिया, किन्तु वंश का अस्तिस्य थर्तमान युग तक चलता रहा। इस वंश के कुछ लोग अंगरेज सरकार से वर्षाशन पासे रहे। मैसूर के ओडेयर राजे कर्णाटक देश में मैसूर (महिशूर, सूर) का ओडेयर वंश भी प्राचीन मंगवंश की ही एक शाखा थी-ये राजे स्वयं को गोम्मटेश प्रतिष्ठापक महाराज चामुण्डराय का वंशज भी बताते हैं। प्रारम्भ में यह छोटा-सा ही राज्य था और प्रायः पूर्णतया जैनधर्म का अनुयायी था। कालान्तर में राजाओं द्वारा शैव-बैठणयादि हिन्दूधर्म अंगीकार कर लिये जाने पर भी मैसूर के राजे स्वयं को श्रवणबेलगोल और उसके उत्तर मध्यकाल के राजपूत राज्य :: 548

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