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निर्विन सम्पादन से आनन्दित होले हुए अपने राष्ट्रपति, विषयपति, ग्रामकटमुक्तक, नियुक्तक, अधिकारिक, महत्तर आदि विविध प्रशासन अधिकारियों को सम्बोधन करके कहा था कि वे उसका आदेश सुनें और सर्वत्र प्रचारित कर दें कि सम्राट् ने उपर्युक्त उपलक्ष्य में अपने माता-पिता के एवं स्वयं अपने पुण्य और यश की अभिवृद्धि के लिए, उसके पूर्वपुरुषों वास देवभोग एवं अनहार निमित्त जो दानादि पूर्वकाल में दिये गये थे, उनकी यह पुष्टि करता है और स्वयं बोस लाख द्रव्य (मुद्राएँ) तथा पचास से अधिक ग्रामों का षष्ठांश (राज्यकर) उसी हेतु अर्पित करता है। इसी प्रसंग में शक 885 (सन् 914 ई.) की फाल्गुन शुक्ला सप्तमी शुक्रवार को उसने नित्य की बलियरु-सत्र-तपोवन के सन्तर्पणार्थ, देवगुरु की पूजार्थ तथा खण्ड-स्फुटित सम्पादनार्थ चन्सनपुरिपत्तन में स्थित बसदि (जिनमन्दिर एवं संस्थान के लिए दो ग्राम द्रविसंघवीरगण चीनीयान्वय के वर्द्धमान गरु के शिष्य लोकभद्र मुनि को समर्पित किये थे। उसी के वजीरखेड़ा से प्राप्त दूसरे ताम्रशासन के अनुसार इन्हीं गुरु को बडमगरपसन की असदि के लिए छह ग्राम प्रदान किये गये थे। लगता है कि यह संस्था वाटनगर की या बारणामपुर को वही प्राीन घन्द्रप्रभु-बलदि थी जिसके संस्थापक और प्रथम' अधिष्ठाता धवलाकार वीरसेन स्वामी थे। इन दोनों दान-प्रशस्तियों के रचयिता कोई कवि राजशेखर थे। इसमें सन्देह नहीं है कि अपने पूर्वजों की भाँति राष्ट्रकूट इन्द्र तृतीय भी जिनेन्द्र का भक्त था। अपने अभीष्ट की प्राप्ति की इच्छा से उसने भगवान् शान्तिनाथ का एक पाषाणनिर्मित सुन्दर पाद-पीठ भी बनवाया था।
धर्मात्मा रानी जक्कियचे -इसी युग की एक उल्लेखनीय जैन महिला-रत्न थी। राष्ट्रकूर सम्राट् कृष्ण द्वितीय (कन्नादेव) के समय में, 911 ई. में, बनवासि-12,000 प्रान्त का शासक महासामन्त कलिबिरस था, जो सम्भवतया बंकेयपुत्र लोकादित्य का उत्तराधिकारी था। उसके अधीन मागरपष्ट-70 का नालगायुषष्ट (सामन्त) सत्तरस नागार्जुन था। उस वर्ष, सम्भवतया किसी युद्ध में नागार्जुन की मृत्यु हो गयी तो सम्राट् ने उसकी पत्नी जस्कियाथे को उसके स्थान में नागरखण्ड एवं अबुतबूर की मालगाकुण्ड और सामन्त नियुक्त किया। यह महिला उत्तम प्रभशक्तियुक्त, जिनेन्द्र शासन की भक्त और अपनी योग्यता एवं सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध थी। अपनी वीरता और पराक्रम के उचित मर्द से गौरवान्वित इस महिला ने कुशलतापूर्वक सात-आठ वर्ष पर्यन्त अपने पद का सफल निर्वाह किया और अपने प्रदेश का सुशासन किया । अन्त में, 918 ई. में, इन्द्र तृतीय के शासन काल मैं वह रुग्ण हो गयी तो शरीर और भोगों को क्षणभंगुर जान, अपनी पुत्री को खलाया और उसे अपनी सम्पत्ति एवं पदभार सौंप दिया और स्वयं खदान के तीर्थ की असदि में जाकर पूरी श्रद्धा के साथ सल्लेखनाव्रतपूर्वक देह का त्याग किया। इस बसदि (जिनालय) का नाम जक्कलि बसदि था और संम्भवतया यह स्वयं जक्कियब्बे
124 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिला