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पुरातन काल से एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहता आया था। यहां का प्रसन जिमायतन चेन्नपाचवसदि थी जिसे मूलतः छठी शती के प्रारम्भ में मंचनरेश दुविनीत ने बनवाया था तथा जिसका नवनिर्माण तैलप द्वितीय ने कराया था तभी से चालुक्यनरेशों के प्रश्रय में यह एक महत्त्वपूर्ण जैन विद्यापीठ बनी हुई थी। उस बसदि में प्राप्त शिलालेखों में से एक में इस नरेश को स्याद्वादमत (जैनधर्म) का अनुयाबी बताया तथा उसके द्वारा उक्त जिनालय के लिए भूमिदान का उल्लेख है। वहीं के एक अन्य शिलालेख भी इस मशहान्द्रकीर्ति नामक जैनगुरु को दान देने का वर्णन है। उसने जैनाचार्य अजितसेन पण्डित वादीघरट्ट का भी सम्मान किया था और उन्हें 'शब्दचतुर्मुख' उपाधि दी थी। द्रमिलसंध-अरुपलान्चय के यह अजितसेन पण्डित ही सम्भवतया क्षत्रचूडामणि' एवं 'गद्यचिन्तामणि' के रचयिता 'वादीभसिंह' हैं। सम्राट् के सास्तर, रह, गंग, होयसल आदि अन्य अनेक सामन्त-सरदार भी जैनधर्म के अनुयायी थे और उन्होंने जिनमन्दिर बनाये तथा भूमि
आदि के दान दिये थे। सोमेश्वर की महारानी केतलदेवी ने मी, जो पोन्नवाड़ 'अग्रहार' की शासिका थी, अपने सचिव चांक्रिराज द्वारा त्रिभुवनतिलक-जिनालय में उसके द्वारा निर्मापित उपचन्दिरों के लिए 1054 ई. में महासेन मुनि को दान दिया था। सम्राट् ने राजधानी कल्याणी का भी विस्तार किया और उसकी सुन्दरता में भी वृद्धि की। 'जाततितक' नाम का कामड़ी भाषा का सर्वप्राचीन ज्योतिषशास्त्र इसी नरेश के प्रश्नय में नरिगण्डनिवासी जैनगुरू श्रीधराचार्य ने 1049 ई. में रचा था। इस नरेश ने होहलमुक्त के शिष्य और पिविण्डिदेव के गुरु जैनाचार्य गराइविमुक्त रामभद्र का भी सम्मान किया था और उन्हें वह गुरुतुल्य मानता था। इन्हीं रामभद्र के प्रशिष्य विमलसेन मलधारि के शिष्य देवसेन ने अपभ्रंश भाषा के सुलोचनाचरित्र की रचना की थी। बलगाम्बे के 1068 ई. के शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस महापराक्रमी, अनेक देशों के विजेता, चक्रवर्ती त्रैलोक्यमाल आहवमल ने 1086 ई. की वैशाख शुक्ल सप्तमी शुक्रवार के दिन चरम योग का नियोग करके तुंगभद्रा नदी में जल समाधि ले ली थी---सम्भवतया किसी विषम या असाध्य रोग से पीड़ित होने के कारण।
सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल (1068-76 ई.)-सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्यमल्ल का ज्येष्ठ पुत्र एवं उत्तराधिकारी अपने पिता की ही भाँति "भव्य' जैन था। चोलों के साथ उसके युद्ध चलते रहे और दो बार उसने उन्हें बुरी तरह पराजित किया। अपने भाइयों के साथ भी उसका संघर्ष चला और राज्य के दो टुकड़े होते-होते बचे। कदम्बों का भी उसने दमन किया। उसके राज्य के प्रथम वर्ष (1068 ई.) में ही उसके मासामन्त लक्ष्मणराज ने बलिग्राम में जिनमन्दिर बनवाया था और सम्राट के अनुमोदनपूर्वक मल्लिकामोद-शान्तिनाथ मन्दिर के लिए माधनन्दि मुनि को भूमिदान दिया था। उक्त मन्दिर के निर्माण तथा उसके लिए दान दिलाने में मुख्य प्रेरक उक्त
राष्ट्रकूट-चौल-उत्तरवर्ती चालुक्य कलचुरि :: 137