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पराक्रमी होने के साथ-ही-साथ परम विद्वान, सुकांचे, कलाममंज्ञ, विद्वानों का प्रश्रयदाता और जैनधर्म का पोषक था। उसके समय में धारानगरी दिगम्बर जैनधर्म का एक प्रमुख केन्द्र यी और राजा जैन मुनियों एवं विद्वानों का धड़ा आदर करता था। अमितगति, माणिक्यामन्दि, नयनन्दि, महापण्डित प्रधाचन्द्र आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता दिग्गज जैनाग है परमार श्रद्धदेव मेह अशा सम्मान प्राप्त किया या। आचार्य शान्ति सेन ने तो उसकी राजसभा में अनेक अजैन विद्वानों को शास्त्राथ में पराजित किया था। धनपाल आदि कई गृहस्थ जैन कदि और विद्वान् भी भोजदेव के आश्रित थे, और उसका सेनापति कुलचन्द्र भी जैन था। इस राजा ने जैन-मन्दिरों का निर्माण भी कराया बताया जाता है। उस काल में प्रतिष्ठापिल अनेक जैन मूर्तियाँ मालया प्रदेश में यत्र-तन्त्र प्राप्त होती हैं। राजधानी धारानगरी को भोजदेव ने अनेक सुन्दर भवनों से अलंकृत किया था। वहाँ सरस्वती-मन्दिर या शारदा सदन नामक एक महान विद्यापीठ की भी स्थापना की थी और बेतवा नदी से पानी काटकर भीजसागर (भोपाल-ताल) का निर्माण कराया था।
भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम (1053-1050 ई.) भी विद्वानों का प्रश्रयदाता था। जैन पण्डित नयनन्दि ने अपना 'सुदर्शनचरित्र उसके समय में धारा में रचा था। तदनन्तर परमार शक्ति निर्बल और सीमित हो गयी। राजा नरवर्मदेव (II4-1107 ई.) भी वीर योद्धा और जैनधर्म का अनुरागी था। उज्जैन के महाकाल-मन्दिर में जैनाचार्य रत्नदेव का शैवाचार्य विद्याशिववादी के साथ शास्त्रार्थ उसी के समय में हुआ था। इस राजा ने जैन यति समुद्रघोष और श्रीवल्लभसरि का भी सम्मान किया था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी यशोधर्मदेव ने भी जैनधर्म और जैन गुरुओं का आदर किया था। जिनचन्द्र नामक एक जैन को उसने अपने गुजरात प्रान्त का शासक नियुक्त किया था। तदनन्तर परमारनरेश बिन्ध्यवर्मा, सुभटवर्मा, अनिवा, देवपाल और जैतुगिदेव ने आचार्यकल्प पं. आशाधर प्रमृति अनेक जैन विद्वानों को आश्रय दिया था और उनका सम्मान किया था। उस काल से, 1166 में मालव प्रदेश के बम्यागंज नामक स्थान में कलिकाल के कल्मष का ध्वंस करनेवाले
और राजाओं द्वारा सम्मानित लोकनन्दि मुनि के प्रशिष्य तथा संघ-तिलक, धर्मज्ञान तपोनिधि देवनन्दि मुनि के शिष्य रामचन्द्रमुनि ने एक सुन्दर जिनालय वनवाया था। यह बड़े तपस्वी, सत्वनिष्ठ और कीर्तिवान् थे। अनेक राजा इनके चरण पूजते थे।
पण्डितप्रवर आशाधर--मूलतः सपादलक्ष्य के भूषण शाकम्भरी के अन्तर्गत मण्डलगढ़ दुर्ग के निवासी थे। यह जैनधर्मानुयायी व्याघ्ररथाल (बघेरवाल) वंशी श्रावक थे। इनके पिता सल्लक्षण माण्डलगढ़ के दुर्गपति या उच्चपदस्थ कर्मचारी थे और इनकी जननी का नाम रत्नी था। अब 1193 ई. में मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज का अन्त करके और दिल्ली पर अधिकार कर लेने के उपरान्त अजमेर पर चढ़ाई करके
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2.30 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ