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होयसल राजवंश
राष्ट्रकूट, चोल, चालुक्य और कलचुरि नामक सम्राट्-वंशों के बाद दक्षिण भारत में इस युग का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्त्वपूर्ण राज्यवंश होयसलों का था, जो प्रारम्भ में कल्याणी के चालुक्य सम्राओं के अधीन महासामन्त रहे और उनकी सत्ता समाप्त होने पर, कम से कम सम्पूर्ण कर्णाटक में सर्वोपरि राज्यशक्ति के स्वामी हुए। कणांटक के प्राचीन गंगवाडि सज्य की भांति ही होयसल राज्य की स्थापना का श्रेष भी एक जैनाचार्य के आशीर्वाद को है। द्वारावती (द्वारसमुद्र या दोरसमुद्र) का यह शक्तिशाली एवं पर्याप्त स्थायी होयसल महाराज्य जैन प्रतिभा की दूसरी सर्वोत्कृष्ट सृष्टि थी।
वंश संस्थापक सल-कर्णाटक की पार्वतीय जाति के एक अभिजात्य, किन्तु विपन्न त में उत्पन्न सल वीर युवक था और पश्चिमी घाटवती, मैसूर राज्य में कर जिले के मुदगैरे तालुके में स्थित अंगडि अपरनाम सोसवूर (शशकपुर) का निवासी था। यह स्थान पहले से ही जैनधर्म का एक अच्छा केन्द्र था। दसवीं शताब्दी में द्रमिलसंधी मौनी भट्टारक के शिष्य विमलचन्द्र पण्डितदेव वहाँ निवास करते थे। वहीं उनका समाधिमरण हुआ और उनके भक्त महाराज इविखेडेंग ने उनका स्मारक बनवाया था। नगर के बाहर 9वीं-10वीं शती ई. की कई सुन्दर बसदियाँ थीं, जिनमें एक का नाम मकर-जिमालय था। उसके निकट ही भगवान पार्श्वनाथ की पक्षी पद्मावती देवी का विशाल मन्दिर था। ग्यारहवीं शती के प्रारम्भ में वहाँ जैनाचार्य सुदत्त वर्धमान का विद्यापीठ अवस्थित था, जिसमें अनेक गृहस्थ, त्यागी और मुनि शिक्षा प्राप्त करते थे। यह मुनीन्द्र उपर्युक्त विमलचन्द्र पण्डितदेव के ही सम्भवतया निकट-परम्परा शिष्य थे। एक अनुमान है कि वह सुप्रसिद्ध जगदेकमल्लवादी वादिराज के शिष्य थे। निस्सहाय एवं साधनविहीन किन्तु तेजस्वी और महत्त्वाकांक्षी युक्क सत इन्हीं सुदत्त वर्धमान का प्रिय छात्र था। उसकी जननी गंगवंश की राजकन्या थी, और सम्मवतया उसके पितृकुल में भी जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। एक दिन देवी के मन्दिर के निकट वन में वह गुरू के निकट एकाकी ही अध्ययन कर रहा था कि एकाएक एक भयंकर शार्दूल वन में से निकलकर गुरु के ऊपर झपटा। गुरु ने अपनी मयूरपिच्छी सल की ओर फेंककर कहा, 'पोय सल' (हे सल, इसे मार): बीर सल
होयसल सजयंश :: II