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विषयों का विवेचन किये जाने के कारण यह ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 11. अनन्तकृतदशांग (अंतगडदसाओ)
अन्तकृद्दशाङ्गसूत्र का अर्धमागधी आगम के अंग ग्रन्थों में आठवाँ स्थान है। एक श्रुतस्कन्ध वाला यह आगम आठ वर्गों में विभक्त है। प्रथम पाँच वर्गों के कथानकों का सम्बन्ध अरिष्टनेमि के साथ और शेष तीन वर्गों के कथानकों का सम्बन्ध भगवान् महावीर और श्रेणिक राजा के साथ है। इसमें 90 उन महान् आत्माओं का वर्णन है, जिन्होंने घोर तप एवं आत्म-साधना द्वारा कर्मों का अन्त करके केवलज्ञान प्राप्त किया, इसलिए वे अन्तकृत कहलाए। उन महान आत्माओं के नगर, उद्यान, चैत्य, धन-वैभव, माता-पिता, परिजनों, दीक्षाग्रहण, श्रुत-ज्ञान की साधना, घोर तप व मुक्ति प्राप्ति का इसमें वर्णन है। यह सम्पूर्ण आगम भौतिकता पर आध्यात्मिक विजय का संदेश प्रदान करता है। सर्वत्र तप की उत्कृष्ट साधना दिखलाई देती है। इसमें भगवान् महावीर ने उपवास एवं ध्यान दोनों को ही क्रमशः बाह्य एवं आन्तरिकतप के रूप में स्वीकार किया है। इस श्रुतांग में कोई भी कथानक पूर्ण रूप से वर्णित नहीं है। ‘वण्णवो' एवं 'जाव' शब्दों द्वारा अधिकांश वर्णन व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा ज्ञाताधर्मकथा से पूरा करने की सूचना मात्र है। इस आगम के तृतीय वर्ग के आठवें अध्ययन में देवकी पुत्र गजसुकुमाल एवं छठे वर्ग के तीसरे अध्ययन में अर्जुन मालाकार के महत्त्वपूर्ण कथानक आए हैं। प्रस्तुत आगम में श्रीकृष्ण के बहुमुखी व्यक्तित्व का भी विस्तार से निरूपण हुआ है। 12. अपभ्रंश चरित काव्य
अपभ्रंश भाषा में विशाल चरित साहित्य उपलब्ध होता है। परिमाण और काव्यत्व दोनों ही दृष्टियों से इसका महत्त्व है। जैन चरित काव्यों की भाँति जैन कथाओं की संख्या भी असीम है।जैनों ने अपने चरित काव्यों का निर्माण धार्मिक विचारधारा से प्रेरित होकर जन साधारण तक पहुँचाने के लिए किया है। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों भाषाओं में जैन चरित ग्रन्थों की सर्जना हुई है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः ऋषभ, नेमिनाथ, पार्श्व, महावीर आदि तीर्थंकरों तथा यशोधर, नागकुमार, करकंडु आदि राजपुरुषों के चरित्रों को अंकित किया गया है।
प्राकृत रत्नाकर 05