Book Title: Prachin Gurjar Kavyasangraha
Author(s): C D Dalal
Publisher: Central Library

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ ९२ प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः हुइ भवसगलाहइमांहि तेह मिच्छा मि दुकडं । मृषावादि सहसातकारि आलु अभ्याख्यान दीघउं, रहसमंत्रभेदु कीधइ, मृषोपदेसु दीघउ, कुडउ लेखु लिखिउ, कुडी साखिथापणि मोसउ, कुणहइसउ राडि भेडि कलहु विढाविढि, जु कोइ अतिचारु मृषावादि व्रति भवसगलाइमाहि हुउ त्रिविधि त्रिविधि मिच्छा मि दुक्कडं। अदत्तादानि विराइउं छानउं फीटुउं लीघउं दीधउं वावरि घरि बाहिरि खेत्रि खलइ पाडइ पाडोसि अणमोकलाविउ चोरीच्छाई चोरप्रति प्रयोगु कीघउ, नवउं पुराणउ रसु विरसु सजीयु निजी मेलिउं, कूडी तूल कूडइ थापि कूडउ कहिउ हुइ, अतीचारु अदत्तादानि व्रति भवसगलाइमांहि हुउ तेह सवहइ मिच्छा मि दुक्कडु । मैथुनव्रति लुहुडपणि आपणा विराया सील खंडया सिउणइ सिउणांतरि, दृष्टिविपर्यासु, आठमि चउसितणा नीमभंगु, अनंगक्रीडा परविवाहकरणु तिव्रभिलाषु धरिउ हुइ, अनेरा जु कोइ अतिचारु मैथुनव्रति भवसगलाइमांहि हुअउ तेह सवहइ त्रिविधि त्रिविधि मिच्छा मि दुक्कडं । हव हियामाहिं सम्यक्त्व धरउ । अरिहंत देवता, सुसाधु गुरु, जिणप्रणीतु धर्मु, सम्यक्त्वदंडकु ऊचरउ । हिव अठार पापस्थानक वोसिरावउ । सर्व प्राणातिपात, सर्दू मृषावाद, सर्व अदत्तादान, सर्दू मैथुनु, सर्व परिग्रहु, सबू क्रोधु, सर्व मानु, सर्व माया, सवू लोभु, राग, द्वेषु, कलहु, अभ्याख्यानु, पैशुन्यु, रति, अरति, परपरिवादु, मायामृषावादु, मिथ्यात्वरिसणसल्यु ए अढारपापस्थान मोक्षमार्गसंसर्गविधनसमान त्रिविधि त्रिविधि वोसिरावउ, अतीतु निंदउ, अनागतु पच्चरकउ, वर्तमान संवरु । सागारुप्रत्याख्यानुउ । खमिउं खमाविउं मई खमिउ छव्विह जीवनिकाय । सिद्धह दिन्ना लोयणा नइ मह वइरु न पावु । हिव दुकृतगरिहा करउं। जु अणादि संसारमाहि हीडतइ हतइ ईणि जीवि मिथ्यात्यु प्रवर्ताविउ । कुतीथु संस्थापिउ, कुमार्ग प्ररुपिउ, सन्माणु अवलपिउ । हिवु ऊपाजि मेल्हि सरीरु कुटुंबु जु पापि प्रवर्तिउ, जि अधिगरण हलऊ खल घरट घरटी खांडां कटारी अरहट्ट पावटा कूप तलाव कीधां कराव्यां अनुमोद्या, ते सवे त्रिविधि त्रिविधि वोसिरावउ । देवस्थानि द्रवि वेवि पूजा महिमा प्रभावना कीधी, तीर्थजात्रा रथजात्रा कीधी, पुस्तक लिखाव्यां, साधर्मिकवाछल्य कीधां, तप नीयम देववंदन वांदणांइ सज्याइ अनेराइधर्मानुष्ठानतणइ विषइ जु ऊजमु कीधउ सु अम्हारउ सफलु हुओ। इति भावनापूर्वकु अनुमोदउ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172