Book Title: Prachin Gurjar Kavyasangraha
Author(s): C D Dalal
Publisher: Central Library

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Page 134
________________ पृथ्वीचन्द्र चरित्र १२५ वंश ते प्रशंसि जेहे जिणतणड अवतार, वंशतणउ कवण विचार । इक्ष्वाकुवंश सूर्यवंश चंदिल चाहआण सोलंकीवंश वालावंश वाघेला वाघरोलावंश गुलवंश गुलबरवंश सोभटा भाटीया सीदा वांदा दाहिणमा कच्छवाह heart हृणवंश हरीयड शकट सिलार धान्यपालवंश अनंगपाल राजपाल दधिपाल कलाप परमार मोरोवंश यादव सैंधव निकुंभ गुहिलउत्त डोडीवंश डोडीयाणवंश मंकूआणा खइरवंश सोलणवंश बोडाणवंश दहीयावंश प्रमुख वहीयावंश प्रमुखवंश जाणिवा । अनइ ब्राह्मणादिक कुलविशेष ज्ञातिविशेष जाणिवा । जिम कलिकाल प्रवर्त्तमानि चउरासी ज्ञाति बोलीयई । किसी ते ज्ञाति । श्रीश्रीमाली उसवाल वाघेरवाल डींडू पुष्करवाल डीसावाल मेडतबाल भाभू सूराणा छत्रवाल दोहिल सोनी षडवड षंडेरवाल पोरूआड गूजर मोट नागर जालहरा षडाइता कपोल जांबू वायडा वाव दसउरा करहीया नागदहा मेवाडा भटेउरा कथरा नरसिंहउरा हारल पंचमवंश सिरबंडला कमोह रोतकी अगरवाल जिणाणी बांभ घांघ पाल्हाउत उचित बगडू अहिछवाल श्रीres वाल्मीकि टाकी तेलटा तिसउरा अठवग्री लाडीसाखा बधनउरा सुहडवाल बीधू पद्मावती नीमा जेहराणा माथुर धाकड पल्लीवाल हरसउरा ferrer गोला गहिबरिया लोहाणा भाटीया नागउरा आणंदउरा सतला कडकोलापुरी रायकवाल पेसीया पेरूया गोमिश्री नारायणा टींटू गजउडा गोषरूआ अजयमेरा कंडोलीया कायस्थ सगउडा सीहउरा जेसवाल नादेवा जाइलवालचावेल | एणि सविहुं ज्ञातिकुलवंशमाहि वषाणीह सुश्रावककुल । जीण सुश्रावकतणइ कुलि जीववधु टालीयइ, जीवदया पालीयइ; मिथ्यात्व परिहरी, यह, सम्यक्त्व अंगीकरीयह; पाणीं भलीपरि गालीयह, इंधण सोधी ज्वालीयह; अथां न राषी, अनंतकाई न चापीई; चोरी न कीजइ, सुपात्रि दान दीज - सुतीर्थ वित्त वावी लाभ लीजह; आलोअण लेई पाप घोईइ, परिग्रहप्रमाणि पुण्यवंत होईइ; उभयकाल सामायक त्रिकाल देवपूजा समाचरीह, पुण्यभंडार भरीइ; बावीस अभक्ष बत्रीस अनंत काय टालीयइ, आठमि चऊदसि पूनिम अमावास चउमासी पजूसण पर्व पालीयई, पुण्यमार्ग उजूआलीयइ । इसु श्राanars कुल, तर पामीयइ जइ पोतड़ पुण्य हुइ विपुल । उत्तिमकुलि लाइ हुत गृहस्थ रहई जय हुइ । कुकलातणउ संयोग, तु हुइ पुण्यतणउ वियोग । किसी ते कुकला । जे चालती कउयछि, साची अलछि; आत्मकुटुंबजकि, परचित्तरंजक; कपटविषइ परिष्ट, अतिहिं अनिष्ट; बोलति छउड ऊतार इ, रीसई छोरू मारइ; जीभई जब छोलइ, अलविहं असंबद्ध बोलई, बगाई करती १२-५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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