Book Title: Prachin Gurjar Kavyasangraha
Author(s): C D Dalal
Publisher: Central Library

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Page 133
________________ १२४ प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः सिंहासण, जगन्नाथहुई बइसण । तेजिइं जोई सकीयइ नीठ, इसिउं रत्नमय पादपीठ; जिस्यां विकसित सहस्रपत्र, तिस्यां पनर छत्रातिछत्र; अमर , देवहुई ढालई चमर; अधरीकृतआदित्यमंडल, तीर्थंकरलक्ष्मीकर्णकुंडल; पूठई झलकई भामंडल । जेहतणइ दर्शनि मिथ्यात्वपटल टलई, इसिउ आगलि धर्मचक्र झलहलई; दिव्य दुंदुभि वाजइ, तीणि निर्घोष गगनांगणि गाजई, परतीर्थिकतणउ भडवाउ भाजइ । सहस्रप्रमाणयोजन इंद्रधज लहलहई, धूपतणा परिमल महमहई, वादिवतणी कोडि दुहद्रुहई। मनुष्यतणी कोडि आवई,मनि रहरहा। ईणि इसिइ समोसरणि परमेश्वर जगदीश्वर नवसुवर्णकमलि पाय स्थापतर, पूछिया ऊतर आपतु; प्रभाई दसई दिसि व्यापतउ, भविकलोकहूई पाप मूंकावतउ, पूर्वदिसितणइ द्वारि पइसइ, पूर्वाभिमुख सिंहासनि बइसइ चतुर्मुख होइ, भविकसंमुख जोई । संपूरी, बारपरिषदपूरी; मिथ्यात्वमानमूरी, पापपटलचूरी, सर्वसत्त्वसाधारिणी, अमृतानुकारिणी, मधुरवाणी; लाभ जाणी; वखाण करइ, धर्म मार्ग विस्तरइ। हिव बेउ नरेश्वर मनि गहगहता, समोसरणिमाहि पहुता। श्रीधर्मनाथहुइं प्रदक्षिणा देउ, आगलि बइठा नरेश्वर बेउ । तिवारे राजापृथ्वीचंद्रि आपणई विशेषवंतइं रूपि लावण्ये करी देवदानवइंद्रहुई आश्चर्य कीg, श्रीधर्मनाथि तीर्थंकरि उपदेश दीघउ । किस्यु ते।। सदशजन्म गृहिणी स्पृहणीयशीला लीलायितं वपुषि पौरुषभूषणा श्रीः । पुत्राः पवित्रचरिताः सुहृदोऽपदोषाः स्युर्धर्मतः खलु फलानि पचेलिमानि॥१॥ अहो भव्य जीव ए इस्यां धर्मनां फल जाणिवां । कवण कवण । पहिलं तां उत्तिमकुलि अवतार, ए धर्मतणां फल सार । जइ जीव नीचकुलि अवतरइ, तु किसिउ पुण्य करइ । एह विश्वमाहि एक माछीतणां कुल, भीलतणां कुल, कोलीतणां कुल । ईणिपरि थोहरी आहेडी वागुरी षाटकी मद्यप घांची चोर वेश्या बाबरी मेय डुंब पाणपेरणीयांतणां पापतणां कुल जाणिवां । जीव एहे कुले अवतरी पाप करी नरकि जाइ, लाधु मनुष्यजन्म निरर्थक थाइ। पुणि जीवहुई उत्तिम कुल दुर्लभ । कुण तेउ उत्तम कुल । वंसाणं जिणवंसो सव्वकुलाणं च सावयकुलाई । सिडिगई य गईणं मुत्तिसुहं सव्वसुक्खाणं ॥२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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