Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 31
________________ प्रबन्धचिन्तामणि वह है अणहिलपुरके राजाओंक समयका कालक्रम-ज्ञापक निश्चित निर्देश । अणहिलपुरके राज्यसिंहासन पर, कौन राजा कब गद्दीपर बैठा और उसने कितने वर्ष राज्य किया इसका जो उल्लेख इस ग्रन्थमें किया गया है वैसा उल्लेख, पूर्वके अन्य किसी ग्रन्थमें नहीं मिलता । यद्यपि इस उल्लेखमें चावडा (चापोत्कट) वंशके जो संवत्सर निर्दिष्ट किये गये हैं उनकी निश्चितिके निर्णायक और समर्थक अन्य कोई वैसे प्रमाण अभीतक उपलब्ध नहीं हो पाये, तथापि उनके बाधक भी वैसे कोई प्रमाण अभीतक उपस्थित नहीं हुए। और चौलुक्य वंशके राजाओंके राज्यकालकी जो संवत्सरावलि इसमें दी गई है वह तो शिलालेख आदि अन्यान्य अनेक प्रमाणोंसे प्रायः सर्वथा निर्धान्त सिद्ध हो चुकी है । इसलिये इसमें दी गई यह राजसंवत्सरावलि बडे ही महत्त्वकी और एक अद्वितीय ऐतिह्य वस्तु साबित हुई है। ७. प्रबन्धचिन्तामणिकी रचना कब और क्यों की गई। सतुङ्ग मूरिने यह ग्रन्थ कब और कहां बनाया इसका उल्लेख उन्होंने अन्धके अन्तमें स्पष्ट कर ही दिया है। इस उल्लेखसे ज्ञात होता है, कि वि... १३६१ में, काठियावाडके वर्तमान वढवान शहरमें उन्होंने इस ग्रन्थको पूर्ण किया। यह वह समय है, जब गुजरातके स्वाधीनत्व और स्वराज्यका सर्वनाश हुआ और विधर्मी यवनराज्य और पारवश्यका प्रादुर्भाव हुआ। मेरुतुङ्गके सामने ही अणहिलपुरका वह चौलुक्य वंश नामशेष हुआ, जिसके स्थापक पुरुषसे ले कर अन्तिम पुरुषके समय तककी गुजरातके राजकीय, सामाजिक और धार्मिक जीवनकी कुछ विशिष्ट स्मृतियां लिपिबद्ध करनेका उन्होंने इस प्रन्थमें मौलिक प्रयत्न किया है । मेरुतुङ्ग सूरिके विचारसे, गुजरातमें – अणहिलपुर पाटनमें - वीरप्रकृति राजा वीरधवल और उसके विचक्षण मंत्री वस्तुपाल-तेजपालके बाद और कोई वैसा स्मरणीय पुरुष पैदा नहीं हुआ जिसका नामनिर्देश वे अपने इस ग्रन्थमें करते । यद्यपि वरिधवलके बाद उसके वंशजोंने प्रायः ५०.५५ वर्षतक अणहिलपुरमें राज्यसिंहासनका उपभोग किया, पर उनका शासन प्रायः निष्प्राण और निस्तेजसा ही रहा । मेरुतुङ्ग सूरिको उस शासनकालमें कोई महत्व नहीं मालूम दिया और इसलिये उन्होंने उस समयकी किसी भी घटनाका उल्लेख अपने ग्रन्थमें नहीं आने दिया । उनके अभिप्रायमें, वीरधवल और वस्तुपाल-तेजपालके साथ गुजरातके ज्योतिर्मय जीवनकी समाप्ति हो गई। चाहे मेरुतुङ्ग सूरिको, इतिहासके आत्माका दिव्य दर्शन हुआ हो या न हुआ हो, पर इसमें कोई शक नहीं कि उनका यह ग्रन्थलेखन, सचमुच, इतिहासदर्शनकी एक अस्पष्ट पर सूक्ष्म कलाके आभासका उत्तम सूचन करता है । जब हम गुजरातके भूतकालीन राष्ट्रीय जीवन पर एक गहरी दृष्टि डालते हैं, तब हमें यह बहुत स्पष्टताके साथ दिखाई देता है, कि यथार्थ ही, गुजरातके भाग्याकाशमें वीरधवल और वस्तुपाल-तेजपाल के बाद, अब तक, वैसा कोई ज्योतिर्धर तेजस्वी तारक उदित नहीं हुआ। और जब तक गुजरातमें पुनः वैसा पूर्ण स्वराज्य स्थापित नहीं हो पाता तब तक हम इस अन्तदाहक अनुभूतिको मिटा नहीं सकते । मेरुत, सूरिने इस ग्रन्थकी रचना किस लिये की-यह भी उन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भमें और अन्तमें, संक्षिप्त रूपमे र वत किया है । वे कहते हैं कि- वारंवार सुनी जानेके कारण पुरानी कथायें बुद्धिमानोंके मनको वैसा प्रान्न नहीं कर पातीं । इसलिये मैं निकटवती सत्पुरुषोंके वृत्तान्तोंसे [ संकलित ऐसे ] इस प्रबन्धचिन्तामणि अन्धकी रचना कर रहा हूं।" (-देखो पृ० २, पद्य ६ का अनुवाद ) इस कथनके भावको स्पष्ट करनेके लिये, इसके नीचे एक टिप्पणी दे कर हमने उसमें कहा है कि-" पुराने जमाने में व्याख्यानकार और कथाकार प्रायः सदा उन्हीं कथा-वार्ताओंको सुनाया करते थे जो महाभारत और रामायण आदि पुराण ग्रन्थोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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