Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 183
________________ १४८ ] प्रबन्धचिन्तामणि [ पंचम प्रकाश वश कर, उसकी बात पूछने लगे । वह भी इस बात के जानने की इच्छासे, नागार्जुन के लिये नमक ज्यादा दे कर रसोई बनाती । इस तरह ६ महीना बीत जानेपर रसोई में खारापनका अनुभव करते हुए नागार्जुनने उसका दोष निकाला । तब उसने इशारेसे उन्हें सूचित किया कि अब रस सिद्ध हो गया है । भानजे बने हुए इन लड़कोंने उस रसको उड़ा लेनेकी लालसासे, - परम्परा द्वारा यह जान कर कि वासुकिने इसका मृत्यु कुशके शस्त्रसे होना बताया है, उसी शस्त्रसे उसे मार डाला । पर वह रस तो सुप्रतिष्ठ देवताधिष्ठित होने के कारण तिरोहित हो गया । जहाँ वह रस स्तंभित किया गया था वहीं पर स्तंभ न क नामक श्री पार्श्वनाथका तीर्थ प्रसिद्ध हुआ, जो रसको भी मात करनेवाला, सकल लोकका अभिलषित फलदाता है । बाद में कुछ कालके व्यतीत होनेपर वह मूर्ति, मुखमात्र जितने भागको छोड कर बाकी भूमिके अंदर दब गई । स्तंभनक पार्श्वनाथका प्रादुर्भाव । २२१) इसके अनन्तर, श्री अभय देव सूरि ने शासन देवताके आदेशसे, ६ महीनेतक माया रहित हो कर आचामलका व्रत करके, खड़िया ( पट्टीपर लिखनेकी घोली मिट्टीकी डलिया ) के प्रयोगसे जब नवाङ्ग वृत्तिकी रचना समाप्त की तो उनके शरीर में भारी कुष्ठ रोग प्रादुर्भूत हो गया । तब पातालका पालक धरणेन्द्र नामक नागराज सफेद सर्पका रूप बना कर आया और उनके शरीरको जीभसे चाट कर उन्हें नीरोग किया । फिर श्रीमान् अभय देव सूरि को उस तीर्थ की यात्राका उपदेश दिया । उन्होंने श्रीसंघ के साथ वहाँ आ कर गोपाल बालकोंके द्वारा उस भूमिका पता लगाया, जहाँ एक गाय रोज दूधकी धारा छोड़े करती थी । वहाँ जा कर एक उत्तम ऐसे नये द्वात्रिंशतिका स्तवनकी रचना की । उसके ३३ वें पद्यकी रचना होनेपर श्री पार्श्वनाथका वह बिंब प्रकट हुआ। फिर देवताके कथनसे उन्होंने उस पद्यको गुप्त रखा। २६३. जो स्वामी, अपने जन्मके चार सहस्र वर्ष पूर्व ही इंद्र, वासुदेव और वरुणके द्वारा अपने वास स्थानपर पूजे गये, इसके बाद कान्ती के धनिक धनेश्वर द्वारा तथा फिर महान् नागार्जुन द्वारा जिनकी पूजा की गई, वे स्तंभनकपुर में स्थित श्री पार्श्वनाथ जिन तुम्हारी रक्षा करें । इस प्रकार नागार्जुनकी उत्पत्ति तथा स्तंभनक तीर्थके अवतारका यह प्रबंध समाप्त हुआ । कवि भर्तृहरिकी उत्पत्तिका वर्णन । २२२) प्राचीन कालमें, अवन्ति पुरी में कोई ब्राह्मण पाणिनि व्याकरण के अध्यापनका कार्य करता था । वह नियमसे नित्य सिप्रा नदी के तटपर स्थित चिन्तामणि गणेशको प्रणाम किये करता था। किसी समय विद्यार्थियोंने फक्किका व्याख्यान आदिके प्रश्नोंसे उसे उद्विग्न कर दिया था, इसलिये वर्षाकालमें जब वह नदी भर कर बह रही थी तो वह उसमें कूद पड़ा । दैवयोगसे एक उखड़े हुए वृक्षका मूल उसके हाथमें आ गया जिसका सहारा पा कर वह तीरपर पहुँच गया । वहाँपर साक्षात् परशुरामको देख कर प्रणाम किया। वे उसके उत्साह के ऐसे अनुष्ठान से प्रसन्न हो कर बोले कि ' इच्छा हो सो मांगो '। उसने पाणिनि के व्याकरण का संपूर्ण रहस्यज्ञान मांगा । उन्होंने उसका देना स्वीकार किया और उसे ' खडिया' प्रदान की । उससे उसने प्रतिदिन व्याकरणकी व्याख्या बनानी शुरू की जो छह महिनेके अंतमें समाप्त हुई। फिर शीघ्र ही गणेशकी अनुज्ञा ले कर, उस प्रथम आदर्श के साथ, वह पुरीमें प्रविष्ट हुआ । [ रातको ] नगरके किसी एक महोल्ले के चौकमें बैठा ही बैठा सो गया । तब सबेरे उसे वहाँ उस तरह पड़ा देख किसी एक वेश्याकी दासियोंने, वेश्यासे उसका हाल कहा । उसने उन्हीं से उसे मँगवा कर अपने हिंडोलेकी खाटपर रखवाया। तीन दिन और रातके बाद जब उसकी नींद कुछ कुछ खुली तो उस चित्रशालाकी आश्चर्यजनक चित्रकारीको देख कर वह अपनेको स्वर्गलोक में उत्पन्न हुआ समझा । तब उस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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