Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 182
________________ प्रकरण २१९-२२० ] प्रकीर्णक प्रबन्ध [१४७ किसीको मारने लगा। अपने प्रौढ़ ज्ञानके द्वारा इन लोगोंका यह वृत्तान्त जान कर उन्होंने विघ्नकी शान्तिकेलिये 'उवसग्गहरं पासं ' इस नूतन स्तोत्रकी रचना की। इस तरह यह वराहमिहिर-प्रबंध समाप्त हुआ। सिद्धयोगी नागार्जुनका वृत्तान्त । २२०) ढं क नामक पर्वत पर रहनेवाले रण सिंह नामक राजपूतको एक भूपल नामकी पुत्री थी जिसने अपने सौन्दर्यसे नागलोककी बालाओंको भी जीत लिया था। उसे देख कर वा सु कि नागका उस पर अनुराग हो गया। उसने उसके साथ संभोग किया और उससे नागार्जुन नामक पुत्र पैदा हुआ। उस पाताल पाल (नाग) ने पुत्रस्नेहसे मोहित हो कर उसे सभी औषधियोंके फल, मूल और पत्रोंका भक्षण कराया। इन औषधियोंके प्रभावसे वह महासिद्धियोंसे अलङ्कृत हुआ। सिद्धपुरुष होनेके कारण पृथ्वी-पर्यटन करता हुआ वह शा त वा ह न नृपतिके पास गया, जहाँ उसे राजाके कलागुरु होनेकी भारी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। तो भी वह गगन-गामिनी विद्याका अध्ययन करनेकेलिये श्री पाद लिप्ता चार्य के पास पाद लिप्त पुर गया। निरभिमान हो कर उनकी सेवा करने लगा । भोजनके समय, पादलेपके द्वारा आकाशमें उड कर अष्टापद आदि तीर्थीको नमस्कार करके वे आचार्य वापस आये, तो उनके चरण धो कर रस, वर्ण और गन्धकी परीक्षासे उसमें १०७ महौषधियोंका होना उसने जाना । बादमें गुरुकी आज्ञाकी परवा न करके उसने स्वयं वैसा ही पादलेप किया। इससे मुर्गे और मोरकी नाई कुछ कुछ उड़ता हुआ वह एक खड्डेमें गिर पडा और चोट लगनेसे उसका सारा शरीर जर्जरित हो गया। तब गुरुने पूछा कि 'यह क्या बात है ?' तो फिर उसने वह सब वृत्तान्त यथावत् निवेदन किया । उसकी इस चतुरतासे चकित हो कर उसके सिरपर अपना करकमल रखते हुए उन्होंने कहा कि-'साठी चावलके पानीमें उन औषधोंको मिलाकर पादलेप करो और इस तरह आकाश गामी बनो'। इस तरह उनके अनुग्रहसे उसे वह सिद्धि प्राप्त हुई। उन्हींके मुंहसे यह भी सुना कि श्री पार्श्वनाथ की मूर्तिके सामने समस्त-स्त्रीलक्षणयुक्त पतिव्रताके हाथसे विमर्दित हो कर जो रस सिद्ध किया जाता है वह कोटिवेधी होता है। [ उसने उस मूर्तिकी गवेषणा करते हुए जाना कि- ] पूर्व कालमें समुद्र वि ज य दशार्ह ( यादव ) ने त्रिकालवेदी श्री नोमनाथके मुखसे सुन कर, महातिशायी श्री पार्श्वनाथका एक रत्नमय बिंब निर्माण करके द्वारा व ती के प्रासादमें स्थापित किया था । द्वारा वती के जलनेके बाद, जबसे वह पुरी समुद्रमें डूब गई तबसे, वह बिंब समुद्रमें वैसे ही विद्यमान रहा। बादमें देवताके प्रभावसे ध न प ति नामक जहाजी व्यापारीका जहाज टकराया। यहाँ पर एक जिनबिंब है' ऐसी देवताकी वाणी सुन कर ध न पति ने वहाँ नाविकोंको उसे निकालनेको कहा। उन्होंने सात कच्चे धागोंसे बांध कर उसे बाहर निकाला और उसके प्रभावसे चिन्तितसे भी अधिक लाभ प्राप्त हुआ जान, उसे अपनी नगरीमें ले आ कर अपने बनाये हुए प्रासादमें स्थापित किया । नागार्जुन ने उस सर्वातिशायी बिंबको, अपने सिद्धरसकी सिद्धिके लिये चुरा कर, से ढी नदी के किनारे ला कर रखा । उस बिंबके सामने, श्री शा त वा ह न राजाकी एक मात्र पत्नी चंद्र ले खा को, सिद्धव्यन्तरके द्वारा उडवा कर रोज उससे रसमर्दन करवाता। इस प्रकार वहाँ वारंवार आनेजानेके कारण उसके साथ घनिष्ठ बंधुभाव पैदा हो गया । इससे उसने ना गा र्जुन से इस रस-मर्दनका हेतु पूछा । उसने भी अपनी कल्पनासे कोटिवेध रसका वह यथावत् वृत्तान्त कहा और वर्णनातीत रूपसे उसका सम्मान करके उसके प्रति अनन्यसामान्य सौजन्य बताया। इसके बाद एक दिन उसने अपने पुत्रोंसे यह वृत्तान्त कहा । वे दोनों इसके लोभी हो कर राज्य त्याग करके नागार्जुन द्वारा अलंकृत उस भूमिमें आ कर गुप्त वेश बना कर रहे। उस रसके ग्रहण करनेकी इच्छासे, जिसके वहाँ नागार्जुन भोजन किये करता था, उसे अर्थदान करके अपने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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