Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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प्रकरण १०४ - १०८ ]
सिद्धराजका शत्रुंजयकी यात्रा करना
[ ७७
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[१०१] हे गरवा गिरनार ! तुम पर वारि जाती हूँ । [ खंगार के लिये ] लंबा बुलावा आया है। इसके जैसा भारक्षम (समर्थ) सज्जन फिर दूसरी बार तुझे नहीं मिलेगा ।
[ १०२ ] मुझको इतने-ही-से संतोष होगा, जो प्रभु (स्वामी) के पगोंमें [ मेरा भी शरीर अग्निद्वारा ] प्रदीप्त हो । न मुझे रानीपनकी चाइना है, न रोष है। ये दोनों खंगार के साथ चले गये ।
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[ १०३ ] हे मन ! अब तंबोल मत माँगो, खुल्ले मुँह मत झांको । देउ ल बा डे के संग्राममें खंगार के साथ वह सब चला गया है ।
[ १०४ ] हे जेसल ! मेरी बाँह मत मोडो और वारंवार विरूप भाव न बताओ । न व घन के विना नदीमें नया प्रवाह नहीं आता ।
[ १०५ ] हे वढवाण ! मैं तुझसे क्या लडूं - भूल जाना चाहती हूँ लेकिन भूल नहीं सकती । हे भोगावा व ढवाण के पासको नदी ) तेंने सोनाके समान प्राणोंका भोग लिया ।
इस प्रकारके बहुतसे वाक्ये [ कहे जाते ] हैं । वे यथाप्रसंग जानलेने योग्य हैं ।
१०७) इसके बाद, महं० जा म्ब के वंशज दण्डाधिपति सज्जन की योग्यता देख कर उसे सुराष्ट्र देश का प्रबन्धक ( गवर्नर ) नियुक्त किया । उसने स्वामीको विना सूचन किये ही, तीन वर्षके वसूल किये हुए [ राजकीय ] द्रव्यसे श्री उज्जयन्त ( गिरनार ) पर्वत पर स्थित नेमिनाथके काठके बने हुए जीर्ण मन्दिरको उखाड़ कर उसके स्थानमें नया पत्थरका मन्दिर बनवाया । चौथे वर्ष चार सामंतोंको भेज कर राजाने सज्जन दण्डाधिपतिको पतन में बुलवाया । उससे [ पिछले ] तीन वर्षका वसूल किया हुआ द्रव्य माँगने पर, साथमें लाये हुए उसी देशके व्यवहारियोंसे उतना ही धन ले कर देता हुआ वह बोला- 'महाराज ! श्री उज्जयन्त के मंदिर के जीर्णोद्धारका पुण्य अथवा यह धन इन दोनोंमेंसे चाहे सो एक ले लें ।' उसके ऐसा बताने पर उसकी अतुलनीय बुद्धिसे चित्तमें चमत्कृत हो कर सिद्धराज ने तीर्थोद्धारका पुण्य लेना ही स्वीकार किया । वह सज्जन फिर उसी देशका अधिकार पा कर, उसने शत्रुंजय और उज्जयन्त इन दोनों तीर्थोंमें उनके बीच के बारह योजन विस्तृत अन्तरके जितना ही लंबा दुकूलका बना हुआ महाध्वज चढ़ाया ।
इस प्रकार यह रैवतकोद्धार प्रबन्ध समाप्त हुआ ।
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सिद्धराजका शत्रुंजयकी यात्रा करना ।
१०८) इसके बाद, एक बार फिर सोमेश्वर की यात्रा कर वापस लौटते समय श्री सिद्धराज ने, रैवतक गिरि की उपत्यकामें डेरा डाल कर, अघना कीर्तन ( मन्दिरादि धर्मस्थान ) देखना चाहा । उसी समय मत्सरपरायण ब्राह्मणोंने यह कह कर पिशुनवाक्योंसे उसे रोका कि 'यह पर्वत सजलाधार लिंग के आकारका है, इसलिये इसे पैरोंसे स्पर्श करना उचित नहीं है । ' राजाने वहाँ पर पूजा भिजवा कर प्रस्थान किया और शत्रुञ्जय महातीर्थ के पास आ कर पड़ाव डाला । वहाँ पर भी उन्हीं निर्दय चुगलखोर ब्राह्मणोंने हाथमें कृपाण ले कर तीर्थ पर जानेका मार्ग रोका। उनके ऐसा करने पर श्री सिद्ध रा ज ने सवेरा होनेके पहले ही, कापड़ीका वेष बना कर, और जिसके दोनों ओर गंगाजलके पात्र रखे हुए हैं ऐसी बहंगी कंधे पर रख कर, खुद इन ब्राह्मणोंके बीच में हो कर पर्वत पर चढ़ गया । किसीने उसके स्वरूपको नहीं जाना । ऊपर जा कर ] गंगाजल से श्री युगादि देव ( ऋषभनाथ ) को स्नान कराया और पर्वतके पासके बारह गाँवोंका शासन उस
१ ये जो वाक्य ऊपर अनूदित किये गये हैं, उनका कितनाक कथन अस्पष्ट और अस्फुटार्थक है । जो अर्थ यहां पर दिया गया है वह निर्भ्रान्त है ऐसा नहीं कह सकते ।
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