Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 114
________________ प्रकरण १०८-१०९] वादी श्रीदेवसूरिका चरित्रवर्णन [ ७९ श्री हे मा चार्य से वादमें निष्णात ऐसे आचार्यकी बात पूछी। उन्होंने चारों विद्याओंमें परम प्रवीणता प्राप्त, जैन मुनिरूप हाथियोंके यूथपति, श्वेतांबर शासनके लिये वज्रके प्राकार जैसे मानेजानेवाले, राजसभाके श्रृंगारहार, कर्णा व ती में [ चातुर्मास ] रहे हुए, वादविद्याके पारगामी, वादिहस्तियोंके लिये सिंहस्वरूप श्री देवा चार्य को बताया। इसके बाद उनको बुलानेके लिये, श्री संघके लेखके साथ राजाकी विज्ञाप्तिका वहां पहुंची। उसे पा कर देव सूरि पत्तन में आये और राजाके अनुरोधसे वाग्देवीकी आराधना की । उस देवाने आदेश दिया कि'वाद करते समय, वा दि वे ता ली य श्री शान्ति सूरि विरचित उत्तराध्य य न बृह दृत्ति में उल्लिखित दिगंबर वादस्थल विषयक चौरासी विकल्प जालका उपन्यास करके, उसे प्रपंचित करोगे तो दिगंबरके मुखमें मुद्रा लग जायगी।' देवीके इस आदेशके बाद, गुप्त भावसे कुमुद चंद्र के पास पंडितोंको यह जाननेके लिये भेजा कि किस शास्त्र में इसकी विशेष कुशलता है । उनके द्वारा उसकी यह निम्न लिखित उक्ति सुनी १५३. हे देव! आदेश कीजिये मैं सहसा क्या करूं? लंकाको यही ले आऊं, या जंबूद्वीपको यहाँसे ले जाऊं?, क्या समुद्रको सुखा दूं, या उस उच्च पर्वतको, जिसकी चोटीका एक पत्थर कैलास है, उसे खेल-ही-में उखाड़ कर समुद्रको वाँध दूं, कि जिसके प्रक्षेपसे क्षुब्ध हो कर समुद्रका पानी बढ़ जाय। इस उक्तिको सुन कर, श्री दे वा चार्य और श्री हे मा चार्य दोनों उसकी सिद्धान्तविषयक बहुत अल्प कुशलता समझ कर उसे अपने मनमें 'जीत लिया, जीत लिया ऐसा मान बडे प्रसन्न हुए । इसके बाद दे व सूरि आचार्यका प्रधान शिष्य रत्न प्रभ, प्रथम रात्रिमें गुप्त वेष करके कुमुद चंद्र के डेरेमें गया। उसने (कुमुदचंद्रने ) पूछा कि- ' तुम कौन हो ?'; ' मैं देव हूँ'; 'देव कौन ?'; 'मैं'; ' मैं कौन !'; 'तुम कुत्ते'; ' कुत्ता कौन ?'; 'तुम'; 'तुम कौन ?'; ' मैं देव'; ["तुम कहाँसे आये !'; 'स्वर्गसे' 'स्वर्गमें क्या बात चल रही है !'; 'कुमुदचन्द्रका सिर ९५ पल है'; 'इसमें प्रमाण क्या है ? ' ' काट कर तौल लो'] इस प्रकारकी उसकी उक्ति-प्रत्युक्तिके बंधनमें जब वह चाककी तरह चक्कर खाने लगा, तो अपनेको देव और दिगम्बरको श्वान बना कर, जैसे गया था वैसे ही लौट आया। [ पीछेसे ] उस चक्रदोषको ठीक ठीक समझा तो मनमें अतिशय विषण्ण हो कर, इस प्रकारकी उचित कविता बना कर उस मायावी कुमुद चन्द्र ने दे व सूरि के पास भेजी १५४. अरे श्वेताम्बरो ! इस प्रकारके विकटाटोप वचनोंके द्वारा, संसार वृक्षके अतिविकट कोटरमें, इस मुग्ध जन-समूहको क्यों गिराते हो ? यदि तत्त्वातत्त्वके विचारमें आप लोगोंको थोड़ीसी भी कामना हो तो सचमुच ही कुमुद चन्द्र के दोनों चरणोंका रात-दिन ध्यान किया करो। इसके बाद श्री देव सूरि के चरणका परम परमाणु ( विनीत शिष्य ), बुद्धिवैभवसे चाणाक्य का भी उपहास करनेवाले पंडित माणिक्य ने निम्नलिखित श्लोक उसके पास भेजा १५५. अरे! वह कौन है जो सिंहके केसजालको पैरोंसे छूना चाहता है ? वह कौन है जो तेज भालेकी नोकसे अपनी आँख खुजालना चाहता है ? वह कौन है जो नागराजके सिर परकी मणिको अपनी शोभाके लिये उतारना चाहता है ? जो यह करना चाहता है वही वंदनीय ऐसे श्वेतांबर शासनकी निन्दा करना चाहता है । फिर, रत्ना कर पंडितने भी इस श्लोकको कुमुद चंद्र के पास उपहासके सहित भेजा१५६. नंगों ( दिगम्बरों ) ने जो युवतियोंकी मुक्तिका निरोध किया है इसमें क्या तत्त्व है वह तो प्रकट ही है । फिर वृथा ही कर्कश तर्कके लिये यह अनर्थमूलक अभिलाषा क्यों करते हो ! For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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