Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 158
________________ प्रकरण १८७ ] कुमारपालादि प्रबन्ध | [ १२३ [ १५८ ] जिसने यहाँ पर ( स्थंभतीर्थ में ) भवसागरको पार करनेके लिये नौकारूप ब्रह्मपुरी बनवाई जिसमें पुरुष तो सामगान करते थे और नारियाँ उसका यशोगान करतीं थीं । [ १५९ ] अपने शुभ्र ऐसे कीर्तिकूट रूप पटसे, दसों दिशाओंका वेष्टन करते हुए स्पष्ट रूपसे, इसने मानों दसों दिशाओं को श्वेतांबर व्रती बनाया । [ १६० ] जिस तारितात्माने ऐसी पौषधशालायें बनाई जो भीतरसे तो श्वेतांबरोंसे (श्वेताम्बर यतियोंके निवाससे) और बाहर सुधा ( चूनापोती ) से विशुद्ध थीं । [ १६१ ] जिसकी पौषधशालाओं में स्त्रीविरहित ऐसे यति वास करते हैं जिनको आत्मभू ( पुत्रजन्म तथा पुनर्जन्म ) की कोई संभावना ही नहीं है । [ १६२ ] वाग्देवीने प्रसन्नतापूर्वक जिस मंत्रीको ज्ञानकी ऐसी आंख दी थी कि जिससे यह धर्मकी सूक्ष्म गतिको भी नित्य ही देखा करता था । वस्तुपालकी तीर्थयात्राका वर्णन । 6 १८७) इसके बाद, सं० १२७७ सालमें सरस्वतीकण्ठाभरण, लघुभोजराज, महाकवि, महाऽमात्य श्री व स्तु पाल ने महायात्रा प्रारंभ की । गुरुके बताये हुए लग्न में, उन्हीं के द्वारा संघाधिपति रूपसे अभिषिक्त हो कर वह जब देवालयके प्रस्थानका उपक्रम कर रहा था, तब दाहिनी ओरसे दुर्गादेवीका स्वर सुनाई दिया, जिसे स्वयं कुछ समझ कर, शकुन शास्त्रके जानकारसे उसका विचार पूछा । मरु देश के एक वृद्ध ( शाकुनिक ) ने कहा कि शकुन तो बड़ा भारी हुआ है ' । ' शकुनसे भी शब्द बलवान् होता है ' यह विचार करके नगर के बाहर आवास ( तंबू ) में देवालयको स्थापित किया । फिर उससे शकुनका विचार पूछने पर उस वृद्धने बताया कि, मार्ग की विषमता में विपरीत शकुन श्रेष्ठ कहा जाता है । [ वर्तमानमें ] राजकीय अन्धाधुन्दीके कारण तीर्थं यात्राका मार्ग विषम हो रहा है । तथा जहां पर वह दुर्गा देख पड़ी थी, वहाँ किसी चतुर पुरुषको भेज कर उस प्रदेशको दिखवाइये । वैसा ही करने पर उस पुरुषने बताया कि. - ' यह जो वंडी ( वाडेकी भींत ) नई बनाई जा रही है उसके १३॥ हवें थर पर यह दुर्गा बैठी थी ।' यह सुन कर उस मरुवृद्धने कहा कि - ' देवी आपको सादी तेरह यात्रा करनेकी सूचना करती है ।' अन्तिम आधी यात्राका कारण पूछने पर उसने कहा कि - ' इस अतुलनीय मंगलके अवसर पर वह कहना ठीक नहीं है । यथा समय सब निवेदन करूँगा । इस वाक्य अनन्तर संघके साथ मंत्रीने आगे प्रयाण किया । उस संघकी सब संख्या यों थी - ४॥ हजार वाहन, २१ सौ श्वेतांबर, तीन सौ दिगम्बर, संघकी रक्षा के लिये १ हजार घोड़े, सात सौ लाल सांढनियां और संघरक्षाके अधिकारी चार महासामन्त थे । इस प्रकार सारी सामग्री के साथ मार्ग तै करके, श्रीपाद लिप्त पुरके अपने बनाये हुए श्रीमन् महावीर देवके चैत्यसे अलंकृत ललिता सरोवर के मैदानमें डेरा दिया । उस तीर्थ पर यथाविधि तीर्थराधना करके मूल प्रासाद में सोनेका कलश, दो प्रौढ़ जिन मूर्तियाँ, श्री मोढ़ेरपुरावतार श्री मन्महावीर चैत्य तथा उसके आराधक ( यक्ष ) की मूर्ति और देवकुलिका, मूल मण्डपके दोनों ओर दो दो चौकीकी कतार, शकुनिका विहार तथा सत्यपुरावतार चैत्यके सामने चाँदीके तोरण, श्रीसंघ के योग्य कई मठ, सात बहनोंकी ७ देव कुलिकायें, नन्दीश्वरावतार - प्रासाद, इन्द्र मण्डप और उसमें हाथी पर चढ़े हुए लवण प्रसाद और वीरधवल की मूर्तियाँ, वहीं पर घोड़े पर चढ़ी सात पूर्वजोंकी मूर्तियाँ, सात गुरुमूर्तियाँ, उसीके निकटकी चौकीमें अपने दो बड़े भाई महं० मा ल देव और लूणिग की आराधक मूर्तियाँ, प्रतोली, अनुपमा सरोवर, कपर्दि यक्ष-मण्डप और तोरण आदि बहुतसे धर्मस्थान बनवाये । इसी तरह नन्दीश्वरके कमठाने ( कारखाने ) के लिये कंटेलिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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