Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 178
________________ प्रकरण २१३-२१५ ] प्रकीर्णक प्रबन्ध [१४३ अपनी रानीसे पर मर्दी ने [ व्यंग्य करते हुए कहा कि-' तुम्हारा भाई समरवीरताका तो बडा अहंकार धारण करता है लेकिन शत्रुओं द्वारा आक्रान्त हो कर वह वहाँसें भाग भी नहीं सका। राजाकी इस मर्मभेदिनी परिहास वाणीको सुन कर रानीने प्रातःकालमें पश्चिमकी ओर देखा । राजाने पूछा ' क्या देखती हो ?' इस पर रानीने कहा कि ' सूर्योदय' । तब राजाने कहा 'पगली, क्या कभी पश्चिम दिशामें भी सूर्योदय होता है ? ' इसपर वह बोली- 'पश्चिममें सूर्योदयका होना असंभव हो कर भी, कभी विधि के विधानके विरुद्धका होना संभव है; पर क्षत्रियोंमें देव जैसे ज ग द्दे व का पराजय होना तो संभव ही नहीं। इस प्रकार उस दम्पतीका प्रिय आलाप हो रहा था। इधर, देवपूजाके बाद ज ग दे व ने ५०० सुभटोंके साथ उठ कर, उस शत्रु राजाकी सेनाका क्रीडामात्र-ही-में इस तरह दलन कर डाला, जिस तरह सूर्य अन्धकारके समूहका, सिंह-शाव गजयूथका और प्रचण्ड अन्धड़ घनघोर मेघमालाका दलन करता है। २१४) वह पर मर्दी राजा, जगतमें एक उदाहरणभूत ऐसे परम ऐश्वर्यका अनुभव करता हुआ, एक निद्राके अवसरको छोड कर, दिनरात अपने ओजके प्रकाशका करनेवाला छुरिका-अभ्यास (छुरी चलानेकी कलाका परिश्रम ) किये करता था । भोजनके अवसर पर रसोई परोसनेमें व्यस्त ऐसे एक एक रसोईयेको नित्य ही निर्दय भावसे उस छुरिकासे काट डालता था । इस प्रकार सालमें ३६० रसोईयोंका वह संहार करता हुआ ' कोप-कालानल 'के बिरुदसे प्रसिद्ध हो गया। २५७. हे आकाश, तुम फैल जाओ; दिशाओ, तुम आगे बढ़ो; हे पृथ्वी, तुम और भी चौड़ी हो जाओ; आदिकालके राजाओंके यशका उMभण तो तुम लोगोंने प्रत्यक्ष किया ही है। अब पर मर्दी राजाके यशोराशिका विकाश होनेसे देखो कि यह ब्रह्माण्ड, प्रस्फुटित बीजोंके कारण, फटे हुए दाडिमकी दशाको प्राप्त हो रहा है। इत्यादि स्तुतियोंसे स्तुत हो कर वह राजा चिर कालतक साम्राज्यके सुखका अनुभव करता रहा । २१५) उसका, सपा द ल क्ष के राजा पृथ्वी रा ज के साथ युद्ध हुआ और संग्रामाङ्गणमें वह अपने सैन्यके पराजित होने पर, दिग्विमूढ़ हो कर, किसी एक दिशासे भागता हुआ अपनी राजधानीमें आया । उस परम दी राजाके द्वारा पूर्व अपमानित कोई सेवक, देश निकालेकी सजा पा कर पृथ्वी राज की सभामें आया । उसके प्रणाम करनेके बाद राजाने उससे पूछा कि-'परमर्दी के नगरमें सुकृती लोग विशेष करके किस देवताकी पूजा करते रहते हैं ? ' इस प्रकार स्वामिके पूछनेपर उसने शीघ्र ही यह तत्कालोचित पद्य पढ़ा२५८. शिवकी पूजा करनेमें वह मंद है, कृष्णार्चन करनेकी उसे कोई तृष्णा नहीं है, दुर्गाको प्रणाम करनेमें वह स्तब्ध रहता है, विधाता रूपी ग्रह [ उसके यहाँ पूजा न पानेसे ] व्यग्र रहता है । ' हमारा स्वामी परमर्दी इसीको मुंहमें रख कर पृथ्वी राज नरपतिसे रक्षा पा सका है' इस बातको सोच कर वहाँकी प्रजा तृण ही की पूजा किये करती है। इस स्तुतिसे प्रसन्न हो कर राजाने उसे यथेष्ट पारितोषिक दे कर अनुगृहीत किया । उसने ( पृथ्वीराज ) इक्कीस बार म्लेच्छराजाको हराया था। तब बाईसवीं बार वही म्लेच्छराज अपनी दुर्धर सेनाके साथ चढ़ कर पृथ्वी राज की राजधानीके पास आ कर ठहरा । मक्खीकी तरह बारबार उड़ा देनेपर भी, इस प्रकार, शत्रुको फिर फिर आते देख उसकी तरफ राजाकी उपेक्षाका होना जाना, तो स्वामीकी असीम कृपाका पात्र और उसके दूसरे शरीरके जैसा वह तुंग नामक क्षात्रतेजधारी वीरश्रेष्ठ, अपनी छायाके जैसे पुत्रको साथ म्लेच्छराजकी सेनामें जा घुसा । रातके समय उसने देखा कि उस शत्रुके तंबूके चारों ओर एक खाई खुदी हुई है जिसमें खैरकी लकड़ीकी आग धधक रही है । यह देख वह अपने पुत्रसे बोला-'मैं इस खाईमें कूद पड़ता हूं; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192