Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ १४०] प्रबन्धचिन्तामणि [पंचम प्रकाश समझ कर उसने अपने पास रख लिया और पटरानी बनाया । इसके बाद उस कृतज्ञाने ब्राह्मणके प्रति की हुई अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण करके राजासे उस विद्याधर नामक ब्राह्मणको बुलाने के लिये प्रार्थना की । राजाने डुग्गी पिटवा कर विनाधर नामक ब्राह्मणको बुलवाया तो उस नामके सात सौ ब्राह्मण आ कर उपस्थित हुए। उनमेंसे उस एकको पहिचान कर अलग बैठाया और बाकी सबको यथोचित सत्कारके साथ बिदा किया गया । बादमें उस विपत्तिग्रस्त विद्याधर से राजाने कहा कि-'जो इच्छा हो माँगो'। राजाके आदेशसे प्रमुदित हो कर उस ब्राह्मणने — सदैव उसकी अंगसेवा' की प्रार्थना की। राजाने स्वीकार करके, उसके असीम चातुर्यकी पर्यालोचना करते हुए उसे सर्वाधिकारके भारका धारण करनेवाला धुरन्धर पद दिया । वह क्रमशः सम्पत्तिशाली बन गया। अपने अन्तःपुरकी बत्तीस सुंदरियोंके लिये ऊँची जातिके कर्पूरके बने हुए नित्य नये आभरण बनवाता और यह कह कर कि पुराने आभरण निर्माल्य हैं उन्हें एक छोटी कुईमें डलवा देता। इस प्रकार साक्षात् दैवतावतारकी नाई दिव्य भोगोंको भोगता हुआ [ नित्य ] अट्ठारह हजार ब्राह्मणोंको यथेच्छ भोजन दान करनेके पश्चात् स्वयं भोजन करता। २११) इसके बाद, विदेशी राजाके ऊपर चढ़ाई करनेके लिये राजाकी आज्ञासे, चतुर्दश विद्याओंके ज्ञाता विद्याधर ने नाना देशोंमें घूमते हुए, एकबार एक ऐसे देशमें जा कर डेरा दिया जहाँ जलानेके लिये इन्धन (लकडी आदि ) नहीं था। तब उन ब्राह्मणों की रसोई के समय, रसोईयोंके वस्त्र तेलमें भिगो कर उन्हींको इन्धन बना कर नित्यकी भाँति ही उनको भोजन कराया। इस तरह शत्रुओंको जीत कर जब वह लौट कर वापस नगरके समीप आया तो मालूम हुआ कि, पिण्याक ( भोजन ) के बनानेकी इच्छासे जो दुकूल जलाये गये, उससे राजा कुपित हो गया है । इससे उसने अपने घरको तो याचकोंके द्वारा लुटवा दिया और स्वयं तीर्थयात्राके लिये निकल पड़ा। राजा भी फिर पीछे जा कर उसका अनुनय करने लगा, पर उसने स्वाभिमानवश, अपनी उस (भोजन बनानेकी ) इच्छाके कारण राजाका वैसा आशय ( क्रोधयुक्त भाव ) हो गया था यह बता कर, जैसे तैसे उसकी अनुमति ले कर अपना अन्त साधन किया। २१२) अनन्तर, सूह व दे वी ने राजासे अपने पुत्रके लिये युवराज पदवी माँगी। राजाने कहा कि' रखेलिनके लड़केको हमारे वंशमें राज्य नहीं दिया जाता '। इससे उसने राजाको मारने के लिये म्लेच्छोंको बुलवाया । उस स्थान पर रहनेवाले पुरुषों ( राजदूतों ) से इस बातका हाल जान कर, राजाने एक दिगंबर भिक्षुकसे, जिसने पद्मावतीसे वर प्राप्त किया हुआ था, सादर निमित्त ( कोई मांत्रिक उपाय ) पूछा । उसने राजाको विश्वास पूर्वक कहा कि-'पद्मावतीका आदेश म्लेच्छागमनके विरुद्ध है । इसके अनन्तर कुछ दिनके बाद, यह सुन कर कि म्लेच्छ नजदीक आ गये हैं, राजाने उस दिगम्बरसे फिर पूछा कि यह ' क्या बात है ? ' तो उसने उसी रातको राजाके सामने ही पद्मावतीको होमादि देना आरम्भ किया । तब उसकी उस उत्तम आकर्षण-विद्याके बलसे, होमकुण्डकी ज्वालाओंमें प्रत्यक्ष हो कर, पद्मावतीने तुरुष्कों ( तुर्को ) के आगमनका निषेध ही बताया। तब फिर उस क्रुद्ध दिगम्बरने उसके कान पकड़ कर अत्यन्त क्रोधसे कहा कि-'म्लेच्छ सेनाके निकट आ जानेपर भी तूं ऐसी मिथ्या बात बोल रही है। इस तरह फटकारी जानेपर उसने कहा कि-'तूं जिस पद्मावतीको अति भक्तिके साथ यह पूछ रहा है वह तो हमारे प्रतापके बलसे कहीं भाग गई है । मैं तो उस म्लेच्छराजकी कुलदेवी हूं। मिथ्या बोल कर लोगोंमें विश्वास पैदा करके, उन्हें म्लेच्छोंके द्वारा विश्वास (प्राण-रहित ) कराती रहती हूं'। ऐसा कह कर वह तिरोहित हो गई। बादमें प्रातःकालमें ही म्लेच्छ सेना द्वारा बा णा र सी नगरीका घिरा जाना राजाने जान पाया । उनके धनुष्यों के टंकारोंमें, राजाके चौदह सौ नगाडोंकी आवाज कहीं डूब गई और म्लेच्छ सेनाके भयसे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192