Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 174
________________ प्रकरण २०९-२१० ] प्रकीर्णक प्रबन्ध [१३९ २४७. हे हार ! तुम सद्वृत्त, सद्गुण, महार्ह, और अमूल्य हो कर प्रियाके घन ऐसे स्तनतटके उपयुक्त तुम्हारी सुंदर मूर्ति है । किन्तु हाय, पामरीके कठोर कंठमें लग कर टूट जानेसे तुमने अपनी वह गुणिता खो दी है। किसी राजासभाके अवसरपर आये हुए राजाने इन कविताओंको देखा और उनका अर्थ समझ कर भीतर ही भीतर मंत्रीसे द्वेष धारण करने लगा । क्यों कि२४८. आजकल प्रायः सन्मार्गका उपदेश करना, उसी तरह कोपका कारण होता है, जैसे नकटेको दर्पण दिखाना। इस न्यायसे कुपित हो कर राजाने उसे पदभ्रष्ट कर दिया। इसके बाद उस राजाने, एक वार, राजपाटिकासे लौटते हुए रास्तेमें दुर्गतिग्रस्त, निरुपाय और एकाकी ऐसे उस उ मा पति ध र को देखा, तो क्रोधपूर्वक उसे मार डालनेके लिये, हस्तिपालके द्वारा उस पर हाथी चलवा दिया । तब उसने महावतसे कहा कि-' जब तक, मैं राजाके सामने कुछ कह पाऊँ तब तक, तुम वेगसे हाथीको जरा थाम रखो'। उसकी बात सुन कर उसने वैसा ही किया; तो फिर वह उमापति ध र बोला२४९. जिसको, सज्जन ऐसे गुरु लोग उपदेश नहीं देते उस शिवका कैसा हाल हो रहा है ?-नंगा फिरता है, शरीरमें धूल लगाता है, बैलकी पीठपर चढ़ता है, साँपोंसे खेला करता है, और जिसमेंसे लोहू टपकता है ऐसे हाथीके चमडेको पहन कर नाचता है । इस प्रकारके आचारबाह्य तथा अन्य कई प्रकारके [ निंद्य ] आचरणोंसे वह प्रेम रखे करता है। इस प्रकार उसके विज्ञानरूपी वचनांकुशसे उस राजाका मनरूपी हाथी वश हुआ, और वह अपने चरित्रके विषयों पश्चात्ताप करता हुआ अपनी खूब निंदा करने लगा। धीरे धीरे उस वासनासे मुक्त हो कर उसने फिरसे उसे अपना प्रधान बनाया । इस प्रकार लक्ष्मणसेन और उमापतिधरका यह प्रबंध समाप्त हुआ। काशीके जयचन्द्र राजाका प्रबन्ध । २१०) का शी न गरी में ज य चन्द्र नामक राजा, महती साम्राज्य लक्ष्मीका पालन करता हुआ, पंगु ( लंगड़ा ) इस बिरुदको धारण करता था । कारण यह था कि बडे भारी सैन्य समूहसे व्याकुलित होनेके कारण, वह गंगा-यमुना नदीरूप लाठीके सहारे विना कहीं आ-जा नहीं सकता था । वहाँ रहनेवाले किसी शालापतिकी सूह व नामक पत्नी, जिसने अपने सौन्दर्यसे तीनों लोकके स्त्रीजनोंको जीत लिया था, किसी समय भयानक ग्रीष्म ऋतुमें जलकेलि करके गंगाके किनारे खडी थी। तब उस खञ्जननयनाने देखा कि एक साँपके शिरपर खंजन पक्षी बैठा है। वहीं पर नहानेके लिए आये हुए किसी ब्राह्मणके पैरों पड़ कर उसने उस असंभव शकुनका विचार पूछा । उस नैमित्तिकने कहा कि-'अगर मेरा सदा आदेश मानना मंजूर करो तो मैं इसका विचार निवेदन करूँ, नहीं तो नहीं ' । उसने वैसा करनेकी प्रतिज्ञा की, तो ब्राह्मणने कहा कि- आजसे सातवें दिन तुम इस राजाकी पटरानी होंगी'-ऐसा कह-सुन कर वे दोनों यथा-स्थान चले गये। जिस दिनके लिये निमित्तज्ञने निर्णय दिया था उसी दिन राजपाटिकासे लौटते हुए राजाने, किसी एक गल्लीमें अगण्य लावण्यसे सुभग अंगवाली उस शालापतिकी स्त्रीको खड़े देखा। उसे अपने चित्तका सर्वस्व चोरनेवाली १ इस पद्यमें प्रयुक्त सद्वृत्त, सद्गुण और गुणित्व ये शब्द प्रसिद्ध अर्थके अतिरिक्त श्लेषसे हारके पक्षमें इन अर्थोके वाचक हैं-सद्वृत्त अच्छी गोलाईवाला; सद्गुण-अच्छे धागेवाला; गुणित्व-धागेकी बनावटवाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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