Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 166
________________ ११. प्रकीर्णक प्रबन्ध । अब, यहाँपर पूर्वोक्त महापुरुषोंके चरित्रके वर्णनमें जो रह गये हैं उन तथा [वैसे ही ] अन्य चरित्रोंका वर्णन इस प्रकीर्णक-प्रकाशमें प्रारंभ किया जाता है । वे इस प्रकार हैं - विक्रमादित्यकी पात्रपरीक्षा। १९८) उस अवन्ती पुरी में, जिसके निकट ही सि प्रा नदी बह रही है, प्राचीन कालमें श्री विक्र मा दि त्य राजा राज्य करता था। उसने सुना कि उसके सत्रागारमें विदेशी लोग भोजनके अनन्तर जो सो जाते हैं वे फिर नहीं उठ पाते ( अर्थात् मर जाते हैं ); इससे विस्मयसे मनमें चकित हो कर राजाने कारण जानना चाहा । उन सभी पथिकोंको दूसरे दिन वस्त्रसे ढंकवा दिया और उस चिरनिद्राकी बातको गुप्त रखनेकी आज्ञा दी। फिर दूसरे दिन आये हुए अन्य पथिकोंको उसी तरह भोजन कराया और सायंकाल उनको उष्ण जल तथा चरणोंमें लगानेके लिये तेल दिया गया। जब वे सब सो गये तो, महानिशामें राजा अपने हाथमें कृपाण ले कर स्वयं एकान्त जगहमें छिप कर खडा रहा । वहाँ कोनेमें पहले धुआँ निकला, फिर आगकी लपट और फिर प्रकाशित फणाकी रत्नप्रभासे अलंकृत सहस्रफण ऐसे नागको निकलते देखा । आश्चर्यसे चमत्कृत हो कर राजा जब सविस्मय उसे देखता है, तो वह फणींद्र उस दिनके सोये हुए प्रत्येक पथिकसे पूछने लगा कि - वह किस चीजका पात्र है ? उनमेंसे प्रत्येकने, किसीने अपनेको धर्म-पात्र, गुण-पात्र, तपःपात्र, रूप-पात्र, काम-पात्र या कीर्ति-पात्र इत्यादि इत्यादि बताया । अज्ञान और यदृच्छावश उसके शापसे उन्हें मरते देख श्री विक्रम ने आगे बढ़ कर हाथ जोड़ कर कहा२३८. हे भोगीन्द्र (नागराज ), पृथ्वीपर बहुधा गुणके योगसे पात्र हुआ करते हैं। किन्तु शुद्ध श्रद्धा से जो पवित्र बना हुआ मन है वही परम पात्र है। इस प्रकार नागराजने अपने ही आशयको कहनेवाले विक्रमादित्य के प्रति कहा कि ' वर माँगो'। श्री विक्रमादित्य ने कहा कि ' इन पथिकोंको जीवित बनाओ'। इस प्रकारका वरदान माँगने पर उसने फिर विशेष भावसे उसे संतुष्ट किया । इस प्रकार श्री विक्रमकी पात्रपरीक्षाका यह प्रबंध समाप्त हुआ। मरे हुए नंदका पुनर्जीवन । १९९) एक बार, पाट ली पुत्र नगरमें, अत्यन्त आनन्दपरायण ऐसे नंद राजाकी मृत्यु होनेपर, उसी समय एक कोई ब्राह्मण वहाँ आया और दूसरेके शरीरमें प्रवेश करनेवाली विद्याके द्वारा राजाके शरीरमें प्रवेश कर गया । उसीके संकेतसे एक दूसरा ब्राह्मण राजाके द्वारपर आ कर वेदोच्चार करने लगा, जिससे राजा जी उठा और फिर उसने अपने कोषाध्यक्षोंसे उसको एक लाख स्वर्ण दिलाया। इस वृत्तान्तको जान कर महामंत्रीने सोचा कि यह नंद पहले तो बड़ा कृपण था और इस समय बड़ा उदार हो रहा है सो यह बात चिंतनीय है । ऐसा जान कर उस ब्राह्मणको पकड़वा लिया और पर-काय-प्रवेशकारी विदेशीको सर्वत्र ढुंदवाया तो यह मालूम पड़ा कि, कहीं पर एक मुर्देकी, कोई एक आदमी रखवाली कर रहा है । तो उसे चितापर चढ़वा कर भस्म करवा दिया। अपने अतुलनीय मतिवैभवसे उस पूर्व नंदको ही अपने महान् साम्राज्यमें फिर निभा लिया । __ इस तरह यह नंद प्रबंध समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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