Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 160
________________ प्रकरण १८७-१८८] कुमारपालादि प्रबन्ध [ १२५ आवश्यक - वंदना नियुक्तिमें कहा है कि२१८. तीर्थंकरोंके गुण उनकी प्रतिमा ( मूर्ति ) में नहीं हैं, यह निःशंसय जानता हुआ भी यह तीर्थकर है ऐसा मान कर उसको नमस्कार करने वाला विपुल कर्मनिर्जरा (कर्मका नाश ) प्राप्त करता है। २१९. इसी प्रकार, जिन देवके प्रज्ञापन किये हुए लिंग (वेष) को नमस्कार करना भी विपुल निर्जराका हेतु है । यद्यपि यह गुणहीन होता है तथापि अध्यात्म शुद्धिके लिये उसे वन्दन करना उचित है। इस प्रकार उनके उपदेशसे अपने सम्यक्त्व रूप दर्पणको मांज कर विशेष रूपसे दर्शन ( संप्रदाय ) की पूजामें परायण हो, स्वस्थान पर आ कर ठहरा । मंत्री तेजपालका आबू पर मन्दिर बनवाना । १८८) ज्येष्ठ भ्राता मं० लूणि गने परलोक प्रयाणके अवसर पर यह धर्मव्यय माँगा था कि - अर्बुद गिरि पर विमल व स हि का में मेरे योग्य एक देवकुलिका बनवाना ।' उसके मरने पर, वहाँके गोठियों (पुजारियों ) से उस मंदिरमें भूमि न पा कर, वि म ल व स हि का के समीप ही चन्द्रा व ती के स्वामीसे नई भूमि ले कर वहीं पर तीनों भुवनके चैत्योंमें ( मन्दिरोंमें ) शलाका ( अप्रगण्य ) जैसा लू णि ग व स हि का प्रासाद बनवाया । उसमें श्री नेमिनाथके बिंबकी स्थापना करके उसकी प्रतिष्ठा कराई। उस मन्दिरके गुण-दोषकी विचारणा करनेके लिये जा वा लिपुर से श्री य शो वीर मंत्रीको बुला कर मंत्री तेज पाल ने प्रासादके विषयमें अभिप्राय पूछा। उसने प्रासादके बनानेवाले स्थपति ( कारीगर ) शो भ न दे व से कहा- 'रंगमण्डपमें शालभंजिका (पुतली ) की जोड़ीकी विलास-घटना, तीर्थकरके प्रासादमें सर्वथा अनुचित और वास्तुशास्त्रसे निषिद्ध है। इसी तरह भीतरी गृहके प्रवेश द्वारमें सिंहोंका यह तोरण देवताकी विशेष पूजाका विनाश करने वाला है। तथा पूर्वज पुरुषोंकी मूर्तियोंसे युक्त हाथियोंके सम्मुख प्रासादका होना, बनाने वालेके भविष्यके विनाशका सूचक होता है। इस विज्ञ कारीगरके हाथसे भी जो इस प्रकारके अप्रतीकार्य ये तीन दोष हो गये, यह भावी कर्मका दोष है।' ऐसा निर्णय करके वह जैसे आया था वैसे ही चला गया। उसकी स्तुतिके ये श्लोक हैं - २२०.हे यशोवीर, यह जो चंद्रमा है वह तुम्हारे यशरूपी मोतियोंका मानों शिखर है, और इसमें जो लांछन है वह इस यशकी रक्षाके लिये (किसीकी नजर न लग जाय इस लिये ) किया गया रक्षा ( राख ) का 'श्री' कार है। २२१. हे यशोवीर, शून्य जिनके मध्यमें हैं ऐसे ये बिन्दु यों तो निरर्थक ही हैं, पर तुम रूप एक ( अंक) के साथ हो जानेसे ये संख्यावान बन जाते हैं। २२२. हे यशोवीर, जब विधाताने चंद्रमामें तुम्हारा नाम लिखना आरंभ किया तो उसके पहलेके दो अक्षर ( यशः ) ही भुवनमें नहीं समा सके। [१६३ ] यशोवीरके निकट न कोई [कवि] मा घ की प्रशंसा करता है न कोई अभिनंद का अभिनंदन करता है; और का लि दास भी उसके पास कलाहीन ( निस्तेज ) मालूम देता है। [१६४ ] यशोवीर मंत्रीने सजनोंके साक्षात् ( सम्मुख ), मुखमें रही दांतोंकी ज्योतिके बहाने ब्राह्मी ( सरस्वती ) को और हाथमें रही हुई सोनेकी मुद्राके बहाने श्री ( लक्ष्मी ) को प्रकाशित किया। [१६५] इस चौहान नरेन्द्रके मंत्रीने वैसे गुण अर्जन किये जिनसे ब्रह्मा और समुद्रकी पुत्रियों ( लक्ष्मी और सरस्वती ) को भी नियंत्रित कर दिया। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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