Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 161
________________ १२६ ] प्रबन्धचिन्तामाणि [चतुर्थ प्रकाश [१६६ / जहाँ लक्ष्मी है वहाँ सरस्वती नहीं है, जहाँ ये दोनों हैं वहाँ विनय नहीं हैं। पर हे यशोवीर, यह बड़ा आश्चर्य है कि तुममें ये तीनों विद्यमान हैं। [१६७ ] वस्तु पाल और य शो वीर ये दोनों सचमुच ही वाग्देवता ( सरस्वती ) के पुत्र हैं, नहीं तो फिर इन दोनोंका दान करनेमें एक ही जैसा स्वभाव कैसे होता । इस प्रकार श्री शत्रुजयादि तीर्थोकी यात्राका प्रबंध समाप्त हुआ। वस्तुपालका शंखराजके साथ युद्ध करना । १८९ ) स्तंभ तीर्थ में, सइद (सय्यद) नामक नौवित्तिक (जहाजी व्यापारी) से श्री वस्तु पाल की लड़ाई होने पर उसने भृगुपुर से शंख नामक महा-साधनिकको वस्तु पाल के विरुद्ध बालरूप कालको बुलाया। वह समुद्रके किनारे डेरा डाल कर रहा । उसने देखा कि नगरका प्रवेशमार्ग शंकुसे (जन समूहसे ) संकीर्ण है और व्यापारियोंके जहाज धनसे भरे हुए हैं। अपने बंदी ( दूत ) को भेज कर वस्तु पाल के साथ लड़ाईके दिनका निश्चय किया। जब उसने चतुरंग सेना सजाई तो वस्तु पाल ने गुड जातिके भूण पाल नामक सुभटको आगे किया । भूण पाल ने प्रतिज्ञा की कि - 'शंख के सिवा यदि दूसरे पर प्रहार करूं तो मैं उसे कपिला गौपर ही प्रहार करना मानूंगा'। फिर बोला कि 'अरे शंख कौन है ?' इस वचनके उत्तरमें प्रतिभट ( शत्रुके सनिक ) ने कहा कि ' मैं शंख हूं' तो उसे तलवारकी धारसे मार गिराया; फिर इसी रीतिसे दूसरे और तीसरेको भी गिरा देनेके बाद बोला कि- 'समुद्रके नजदीक होनेसे क्या शंखोंकी संख्या बढ़ गई है ?' तो महासाधनिक शंखने ही उसकी सुभटताकी प्रशंसा करते हुए बुलाया । उसने फिर भालेके अग्रभागसे उस पर प्रहार करते हुए एक ही प्रहारमें घोड़ेके साथ उसे मार डाला। इसके बाद, समरभूमिके प्रेमी श्री वस्तु पाल ने, सिंहकिशोर जैसे गजयूथको त्रासित करता है वैसे, शंखके सैन्यको त्रस्त बना कर दसों दिशाओंमें भगा दिया। [पीछे सइद नौवित्तिक भी मार डाला गया । ] फिर भूण पाल की मृत्युके स्थान पर मंत्रीने भूण पा ले श्वर प्रासाद बनवाया। (यहाँ P प्रतिमें निम्नलिखित श्लोक अधिक पाये जाते हैं-) [१६८ ] धनुषकी प्रत्यञ्चासे काण्डों ( बाणों) की तो सन्धि (सुलह और योग) हुई पर उन वीरप्रकाण्डोंमें परस्पर विग्रह हुआ। [१६९ ] बाणोंने स्पष्ट ही दुर्जनोंकी सी चेष्टा की । क्यों कि वे कानमें तो दूसरेके लगते थे और जीवननाश दूसरेका करते थे। [ १७० ] तरकसको छोड़ कर बाण वेगसे धनुष पर आ जाते थे। यही तो सपक्षोंका (१ अपने पक्षवालोंका, २ पक्षसहितों-बाणोंका ) चिह्न है कि विपत्कालमें आगे रहते हैं। [१७१ ] विपक्षीय वैरियोंके वक्षःस्थलमें लग कर बाण पार निकल गये । [ सो ठीक ही है ] क्यों कि धीरोंके हृदयमें निर्गुणोंको चिर अवस्थान नहीं प्राप्त होता। [१७२ ] मंत्रीशके हाथके संसर्गसे तलवार भी मानों दान के लिये उद्यत हो कर, बद्धमुष्टि होते हुए भी, क्षण भरमें कोश (१ म्यान, २ खजाना) का उत्सर्ग (१ त्याग, २ दान ) किया । [१७३ ] वीरोंके चरण और हाथ रूपी कमलसे पूजित हो कर रणभूमि भी मानों दूर्वारूपी केशोंके साथ सिररूपी फलोंका दान करने लगी। For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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