Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 144
________________ प्रकरण १५० - १५४ ] कुमारपालोंदि प्रबन्ध [ १०९ है । हमने इस पर कहा कि ' क्या अब भी ?' यह कहते ही शब्दतत्त्वको जानने वाले इसने कहा कि 'अब मातृका - शास्त्र ( वर्णमाला ) में हकार सबके अंतमें पढ़ा जाता था, अतएव वह अब तो मेरे नाम ( हेम चंद्र ) में वह पहले आ गया है और एक मात्रा अधिक तो नहीं ।' क्यों कि पहले रडता = रोता था; किन्तु भी हो गया है । इस प्रकार यह हरडइ प्रबंध समाप्त हुआ । * उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति । १५२) एक बार, किसी पंडितने पूछा कि 'उर्वशी' शब्दका शकार तालव्य है या दन्त्य । इस पर प्रभु (हेम चंद्र ) कुछ सोच कर कहने जा रहे थे कि कपर्दी ने पत्र पर यह लिख कर उनके अंकमें फेंक दिया कि ' उरौ शेते उर्वशी' अर्थात् जो उरुमें शयन करे वह उर्वशी । इसीको प्रामाण्य समझ कर प्रभुने उस पंडित के आगे तालव्य शकार होनेका निर्णय कह सुनाया । इस प्रकार यह उर्वशी शब्द- प्रबंध समाप्त हुआ । * सपादलक्षके राजाके नामका अर्थखण्डन । १५३) अन्य किसी समय, सपादलक्ष के राजाका कोई सान्धिविग्रहिक कुमार पाल राजाकी सभा में आया । राजाने पूछा कि 'आपके स्वामी कुशल तो हैं ?' अपनेको महापंडित समझने वाला वह मिथ्याभिमानी बोला- 'विश्वको जो ले ले वह 'विश्वल ' कहलाता है ( - यह सपादलक्ष के राजाका नाम था ) । इस लिए उसकी विजयमें क्या सन्देह है ? ' राजाका इशारा पा कर श्रीमान् कपर्दी मंत्री ने कहा कि - ' वल वल्ल धातु तो शीघ्र गत्यर्थक है । इसी वल धातुसे यह शब्द बना है, अतः इसका अर्थ तो यह हुआ कि - वि अर्थात् पक्षीकी भाँति जो वलन करता है - भाग जाता है वह ' विश्वल ' है ।' इसके बाद, उस प्रधानके द्वारा इस नाममें दोष समझ कर उस राजाने पंडितोंके पास निर्णय कराके ' विग्रहराज ' ऐसा दूसरा नाम धारण किया। दूसरे वर्ष उसी प्रधानने कुमारपाल नृपतिके सामने ' विग्रहराज ' यह नाम बताया। मंत्री कपर्दीने [ यह अर्थ किया ] - विप्र = विगतनासिक - नासिकाहीन; ह-राज अर्थात् रुद्र और नारायण । रुद्र और नारायणको जिसने नासिका हीन किया है यह इस 'विग्रहराज ' का अर्थ है । तदनन्तर कपर्दी के नामखण्डन के भयसे उस राजाने ' कवि - बान्धव ' ऐसा नाम धारण किया । * १५४) एक दूसरी बार कुमार पाल राजा के आगे योग शास्त्र का व्याख्यान हो रहा था उसमें जब पञ्चदश कर्मादानका पाठ पढा जाने लगा तब “ दन्तकेशनखास्थित्वग्रोम्णां ग्रहणमाकरे " प्रभुके रचे हुए इस मूल पाठ में पंडित उदय चन्द्र बार बार ' रोम्णां ग्रहणम् रोम्णां ग्रहणम् ' यह पाठ बोलने लगा । तो प्रभुने पूछा कि – ' क्या लिपि-भेद (अशुद्ध पाठ ) हो गया है ? '। उसने कहा - ' प्राणितुर्याङ्गाणाम् ' इस व्याकरण सूत्रसे तो एकत्व सिद्ध होता है, [ सो यहाँ पर वैसा होना चाहिए ] ' ऐसे लक्षणविशेषको बता कर, प्रभु द्वारा प्रशंसित हुआ और राजाने न्युंछन करके उसकी संभवाना की । इस प्रकार पं० उदयचंद्रका यह प्रबंध समाप्त हुआ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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