Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 151
________________ ११६ ] प्रबन्धचिन्तामणि [ चतुर्थ प्रकाश हेमचन्द्र सूरिको लूना रोग लगना। १६९) अब एक बार, कच्छ प रा ज ल क्ष रा ज की महासती माताने जो मूल राज को शाप दिया था कि उसके वंशजोंको लूता रोग हो जाया करेगा; तदनुसार, कु मार पाल ने जब गृहस्थ धर्म (श्रावकपन) के व्रत ग्रहण किये तब उसने अपना राज्य गुरु श्री हे म चन्द्र को समर्पण कर दिया था, इसलिये उसी छिद्रसे (इस राज्यसम्बन्धके छलसे ) सूरिको भी वह लूता रोग संक्रामित हुआ। इसे देख सभी राजलोकके साथ राजा दुःखित हुआ, तब प्रभुने प्रणिधानसे अपनी आयु प्रबल समझ कर अष्टाङ्ग योगाभ्यासके द्वारा, लीला (क्रीडा ) के साथ उस रोगको नष्ट कर दिया । १७०) किसी समय, कदली पत्र पर आरूढ़ किसी योगीको देख कर विस्मित बने हुए राजाको प्रभुने भूमिसे चार अंगुल ऊपर अधर रह कर ब्रह्मरन्ध्रसे निकलता हुआ तेजःपुञ्ज दिखाया । हेमचन्द्रसूरि और कुमारपालका स्वर्गवास । १७१) चौरासी वर्षकी अवस्थाके अंतमें प्रभुने अपना अंतिम दिन समीप आया समझ कर, अनशन पूर्वक अन्त्याराधन क्रिया प्रारंभ की। उसे देख कर दुःखित हुए राजाको प्रभुने कहा कि - ' तुम्हारी आयु भी अब ६ महीना ही बाकी है। सन्तानाभावके कारण अपने वर्तमान रहते ही अपनी सब उत्तर क्रिया कर-करा लेना।' यह आदेश दे कर दशम द्वारसे उन्होंने अपना प्राणत्याग कर दिया। फिर इसके बाद प्रभुके संस्कार स्थान पर, यह समझ कर कि, उनके देहकी भस्म भी पवित्र है, राजाने तिलक करके नमस्कार किया। इसके बाद सभी सामंत और नागरिक लोगोंने वहाँ की मिट्टी ले ले कर तिलक करना शुरू किया जिससे वहां पर गड्ढा हो गया । वह गड्डा आज भी 'हे म खड्ड' नामसे प्रसिद्ध है। १७२) अब फिर, राजा प्रभुके शोकमें विकल हो कर आँखोंमें आँसू भर भर रोने लगा जिस पर मंत्रियोंने उसे वैसा न करनेकी विज्ञप्ति की, तो वह बोला- 'मैं उन प्रभुके लिये शोक नहीं कर रहा हूँ जिन्होंने अपने पुण्यसे उत्तमसे उत्तम लोक अर्जित किया है। मैं तो अपने इस सर्वथा त्याज्य ऐसे सप्ताङ्ग राज्यके लिये शोक कर रहा हूँ, कि राज्यपिण्ड दोषसे दूषित होने के कारण मेरा पानी भी इन जगद्गुरुके अंगमें नहीं लगा-' इस प्रकार प्रभुके गुणोंको स्मरण करता हुआ चिरकाल तक विलाप करते रहा और अन्तमें प्रभुके कहे हुए दिन पर उन्हींकी उपदिष्ट विधिसे समाधि पूर्वक मर कर उस राजाने स्वर्गलोक अलंकृत किया । यहाँ पर P प्रतिमें निम्नोद्धत श्लोक अधिक प्राप्त होते हैं-जो सोमेश्वरकी कीर्तिकौमुदीके हैं[ १२८ ] पृथु आदि पूर्व राजाओंने स्वर्ग जाते समय जिस राजाके पास अपने गुणरूपी रत्नोंको मानों न्यासके रूपमें रख दिया था ! [ १२९ ] इस राजाने न केवल युद्धक्षेत्रमें अपने बाणोंसे मात्र शत्रुओंको ही जीत लिया था, किंतु अपने लोकप्रीतिकर गुणोंसे इसने पूर्वजोंको भी जीत लिया। [ १३० ] राग और रतिसे रहित, ऐसे ( अथवा वीतरागमें प्रीतिवाले ) इस नृदेवकी, मृतोंके धनको छोड़ देनेके कारण, देवताकी नाई अमृतार्थता सिद्ध हुई । ( क्यों कि देवता अमृतके अर्थी होते हैं, और यह मृतका अर्थ नहीं लेता था।) [ १३१ ] इस राजाने तलवारकी धारमें नहाई हुई वीरोंकी श्री (लक्ष्मी ) ही ग्रहण की, किंतु आँसूकी धारासे धुली हुई कायरोंकी ( और निरपत्य जनोंकी ) श्री नहीं ली । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192