Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 146
________________ प्रकरण १५५-१६२ ] कुमारपालादि प्रबन्ध [ १११ १५९) इसके बाद, स्तंभ तीर्थ के सामान्य सा लिग व सहिका नामक प्रासादका, जिसमें प्रभुकी दीक्षा हुई थी, रत्नमय बिंबसे अलंकृत कर, अनुपम जीर्णोद्धार कराया । इस प्रकार सालिगवसहिकाके उद्धारका प्रबंध समाप्त हुआ । * मठपति बृहस्पतिका अविनय । १६०) बादमें, सोमेश्वर पत्तन के कुमार-विहार - प्रासाद में बृहस्पति नामक गण्ड ( मठाधिपति), कोई अप्रिय कार्य करने के कारण, प्रभु ( हेमसूरि ) की अप्रसन्नताका पात्र हुआ और वह पदभ्रष्ट किया गया । बाद में, अणहिलपुर में आ कर, षड्विध आवश्यक किया करता हुआ सन्मानका पात्र हो कर प्रभुको सेवा करने लगा । एक बार चातुर्मासिक पारण के समय प्रभुके चरणों में द्वादशावर्त वंदना करके बोला - १९९. हे नाथ, चार मास तक आपके इस चरणयुगके पास बैठ कर कषाय ( राग द्वेष रूप क्लेश ) का नाश करने के लिए विकृतिपरिहार ( रसवाले अन्नका त्याग ) रूप व्रत मैंने किया है। अब, आपके चरण कमलने निर्लोठित कर दिया है उद्भेदक कलि जिसका, ऐसे हे मुनितिलक ! मुझको, पानीसे भीगे हुए अन्न ही की वृत्ति मिला करे । वह ऐसी विज्ञप्ति कर रहा था कि उसी समय राजा वहाँ आ गया और उसने प्रभुको प्रसन्न देख कर, उसे पुनः अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया | इस प्रकार यह बृहस्पति-प्रबंध समाप्त हुआ । * मंत्री आलिगकी स्पष्टवादिता । १६१) एक बार, सर्वावसर ( राजसभा ) में बैठे हुए राजाने आ लिग नामक [ वृद्ध ] प्रधान पुरुषसे पूछा कि - ' मैं [ गुणादि में ] सिद्धराज से हीन हूँ, अधिक हूँ या समान हूँ ।' उसने, किसी प्रकार के छल भावका विचार न करनेकी प्रार्थना करके कहा कि - 'श्री सिद्धराज में ९८ तो गुण थे और दो दोष थे; और महाराज दो गुण हैं और ९८ दोष हैं ।' उसके ऐसा निवेदन करने पर राजा अपने आपको दोषपूर्ण जान कर, अपने जीवन पर विरक्त हो उठा और आँखोंमें छुरी भोंकना जीवनका अन्त कर देना ) चाहा तो उसके आशयको समझ कर उस वृद्धने कहा कि - 'श्री सिद्धराज के जो ९८ गुण थे, वे संग्राममें कायरता और स्त्रीलम्पटताके इन दो दोषोंमें छिप जाते थे । आपके जो कृपणता आदि दोष हैं, वे युद्धमें दिखाई देनेवाली शूरता और परस्त्रीके विषयमें रही हुई सहोदरताके इन दो [ महान् ] गुणोंमें ढंक जाते हैं ' - उसके इस वचनसे राजा फिर स्वस्थ हुआ । इस प्रकार यह आलिगमबंध समाप्त हुआ । * पं० वामराशिको क्षमा प्रदान करना । १६२) पहले, सिद्धराज के राज्य समयमें, पॉंडित्यकी स्पर्द्धा में सामना करने वाला वामराशि नामक ब्राह्मण, प्रभु ( हेमचंद्र ) की इस विशिष्ट प्रतिष्ठाको सहन न कर [ निंदा करते हुए ] बोला कि - २००. जिसके ( शरीर पर ) लटकते हुए कम्बलमें करोड़ों यूकाओंकी पंक्ति किलबिला रही है, दाँतों की मलमंडलीकी दुर्गंध से जिसका मुँह भरा हुआ हैं, जिसके नासा-वंशके निरोधसे पाठकी प्रतिष्ठा गिनगिनाट कर रही है और जिसके सिरकी टाल पिलपिला रही है वह 'हे म ड' नामक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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