Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ प्रबन्धचिन्तामणि १९५. कंबल और दंड वाला यह हेम तुम्हारी रक्षा करें । इस प्रकार कह कर वह ठहर गया । राजाने उसे क्रोध की दृष्टिसे देखा । तब फिर १०८ ] [ चतुर्थ प्रकाश जो षड्दर्शन रूप पशुओंको जैन - गोचर ( चरागाह ) में चरा रहे हैं । यह उत्तरार्द्ध पढ़ा जिसे सुन कर सारी सभा प्रसन्न हुई । फिर कविने रामचन्द्रादि [ कवियों ] को समस्यायें पूर्ण करने को दीं । ' व्याषिद्धा नयने ०' इस चरणवाली एक समस्या की पूर्ति महामात्य कपर्दीने इस प्रकार की १९६. ' इसकी ये सरल ( बड़ी बड़ी ) आंखें दोनों हथेलियोंसे ढांकी नहीं जा सकतीं, और अपने मुखरूपी चन्द्रमाकी चांदनीके प्रकाशसे यह सब कहीं दिखाई दिया करती है - इस लिये आँख मिचौनीके खेल में अपनी चारों ओर रही हुई सखियोंके बीच में बैठी हुई वह बाला [ खेलनेसे ] रोक दी गई है और इस लिये वह अपने मुख और आँखोंको रो रही है ।' [ इस समस्यापूर्तिकी प्रतिभासे प्रसन्न हो कर ] उस कविने पचास हजारकी कीमतका अपने गलेका हार निकाल कर कपर्दी के कण्ठमें यह कहते हुए डाल दिया कि ' यह तो श्रीभारतीका पद ( स्थान ) है । ' उसकी सहृदयतासे चमत्कृत हो कर राजा उसे अपने पास रखने लगा, तो वह यह कह कर, राजा द्वारा सत्कृत हो कर यथास्थान चला गया कि १९७. कर्णकी कथा तो अब शेष मात्र रह गई है। काशी नगरी मनुष्योंकी कमीके कारण क्षीणप्राय हो गई है । पूर्व ( या उत्तर ) दिशामें हम्मीर ( म्लेच्छ ) के घोडे सहर्ष हिनहिना रहे हैं 1 इससे यह मेरा हृदय तो अब, सरस्वतीके आलिंगन में प्रवृत्त क्षारसमुद्र के साथ स्नेहवाले प्रभास क्षेत्र के लिये उत्कण्ठित हो रहा है । * हेमचन्द्रसूरिका समस्या पूरण करना । १५० ) किसी समय कुमार विहार देवमन्दिर में राजा द्वारा आमंत्रित हो कर प्रभु श्री हेम चंद्र, कपर्दी मंत्री द्वारा हाथका सहारा पा कर, जब सोपान पर चढ़ रहे थे [ वहां पर नृत्योद्यत ] नर्तकीके कबुककी कसनीको तनती हुई देख कर कपर्दीने यह कहा १९८. हे सखि तेरा यह कञ्चुक सौभाग्यशाली है इस लिये इसका यह तनना युक्त ही है । यह कह कर उसे जब आगे बोलने में विलंब करते देखा तो प्रभुने उत्तरार्धं इस प्रकार कह दिया - जिसके गुणका ग्रहण पीठपीछे तरुणीजन करता है । * आचार्य और मंत्री के बीचमें 'हरडइ' का वाग्विलास । १५१) एक बार, सवेरे कपर्दी मंत्री ने श्री सूरिको प्रणाम करनेके बाद [ उसके हाथमें कोई चीज देख कर ] उन्होंने पूछा - ' यह क्या चीज है ?' उसने प्राकृत ( देशी ) भाषा में कहा - 'हरडइ ' - अर्थात् 'हरें ' । प्रभुने कहा - ' क्या अब भी ? ' । तब वह अपनी अनाहत प्रतिभा ( प्रखर बुद्धि ) के कारण उनके वचनच्छल ( व्यंग्य ) को समझ कर बोला- ' अब तो नहीं'। क्यों कि अन्तिम होने पर भी वह आदिम हो गया और एक मात्रा अधिक भी हो गया । हर्षाश्रु पूर्ण आँखोंसे प्रभुने राम चंद्र आदिके सामने उसकी चतुराईकी प्रशंसा की । उन्होंने ( रामचन्द्रादिने) तत्त्व न समझ कर पूछा कि ' बात क्या है ? ' प्रभुने कहा कि ' हरडइ ' इसमें शब्दच्छल से यह अर्थ लक्ष्य करके निकाला गया कि 'ह रडइ' अर्थात् हकार रोता ( गुजराती रडता ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192