Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 122
________________ प्रकरण ११७-११९ ] सिद्धराजकी सभा म्लेच्छराजके दूतोंका आगमन । [ ८७ सिद्धराजकी सभामें म्लेच्छराजके दूतोंका आगमन । ११८) एक दूसरी बार, म्लेच्छराजके प्रधानोंके आने पर, मध्यदेशसे आये हुए वेषकारोंको बुला कर कुछ रहस्य दिखलानेका आदेश दे कर विसर्जित किया। इसके बाद दूसरे दिन, सायंकाल, प्रलय कालके समान प्रचण्ड पवनके आने पर, राजा सुधर्मा सभाके समान राजसभामें सिंहासन पर बैठ कर जो देखता है, तो अन्तरीक्षसे दो राक्षस उतर रहे हैं - जिनके मस्तक पर सोनेकी दो ईंटें रखी हुई हैं और जो सुवर्ण जैसी कान्ति धारण कर रहे हैं। उन्हें देख कर सारी सभा भयसे भ्रांत हो उठी। इसके बाद, उन्होंने राजाके चरणपीठ पर वह उपहार रख दिया और फिर पृथ्वीतल पर लुठित होते हुए, प्रणाम करके कहा कि- 'आज लं का न गरी में महाराजाधिराज बिभीषण ने देवपूजा करते समय राज्यस्थापनाचार्य रघुकुल-तिलक श्री रामचन्द्रके उत्तम गुणग्रामोंको स्मरण करते हुए, ज्ञानमय दृष्टिसे जाना कि-आजकल उनके स्वामी ( रामचन्द्र ) चौ लुक्य कुल तिलक श्री सिद्ध रा ज के रूपमें अवतीर्ण हुए हैं। इस लिये उन्होंने यह ( सन्देश ) कह कर हम दोनोंको भेजा है कि- ' मैं प्रभुको प्रणाम करनेके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित मनवाला हो रहा हूं, सो क्या मैं ही वहाँ प्रणाम करनेको उपस्थित होऊँ या प्रभु ही यहाँ आ कर मुझे अनुगृहीत करेंगे ?- इसका निर्णय महाराज स्वयं अपने श्रीमुखसे करें।' उनकी यह बात सुन कर, राजाने मन-ही-मन कुछ सोच कर उनसे इस प्रकार कहा- 'प्रफुल्ल आनंद लहरीसे प्रेरित हो कर मैं ही खुद अपने अनुकूल समय पर, बिभीषणसे मिलने आ जाऊँगा।' ऐसा कह कर, अपने कण्ठका श्रृंगारभूत ऐसा एकावली हार उनको प्रत्युपहारके रूपमें दे दिया । जाते समय 'प्रभुके अन्य दूत पठानेके अवसर पर, हमें भुला न दें' इस प्रकारकी विशेष विज्ञप्ति करके अन्तरीक्ष मार्गसे वे दोनों राक्षस तिरोहित हो गये । उसी समय वे म्लेच्छोंके प्रधान पुरुष बुलाये गये तो, भयभीत हो कर अपना पौरुष छोड़, राजाके सामने आ कर उपस्थित हुए और भक्तियुक्त वचन कह कर राजाको खुश करने लगे । राजाने फिर उनके राजाके लिये उचित भेट दे कर उनको बिदा किया । इस प्रकार यह म्लेच्छागमनिषेध प्रबंध समाप्त हुआ। सिद्धराजका कोल्हापुरके राजाको चमत्कारके भ्रममें डालना। ११९) बादमें, किसी समय, कोल्हापुर नगरके राजाकी सभामें बन्दियोंने श्री सिद्ध राज की कीर्तिका गान किया। उस राजाने कहा कि-'सिद्ध राज को हम ऐसा तब मानेंगे जब हमें भी कोई वह प्रत्यक्ष चमत्कार दिखायेगा।' राजाके इस कथनसे पराभूत हो कर, उन्होंने सिद्ध रा ज को यह वृत्तांत कह सुनाया। इस पर राजाने जब सभामें नजर फिराई तो उसके मनकी बात समझने वाले किसी सेवकने हाथ जोड़ कर अपना अभिप्राय प्रकट किया । राजाने उसे एकान्तमें बुला कर उसका कारण पूछा। उसने राजाके आशयको कह बतलाया और विशेषमें कहा कि-'तीन लाखके व्ययसे यह काम सिद्ध होने योग्य है । ' फिर उसी समय, ज्योतिषीके बताये हुए मुहूर्तमें राजासे तीन लाख ले कर, वह व्यापारी बनिया बन कर सब प्रकारके मालका संग्रह करके, सिद्धके संकेत चिह वाली रत्न जड़ी हुई दो सोनेकी खड़ाऊँ, एक अतुलनीय योगदण्ड, दो मणिके बने हुए कुण्डल, उसी प्रकारके योगका सूचक योगपट, तथा सूर्यकी किरणोंके जैसा चमकदार एक चन्द्रातक उसने साथमें लिया, और रास्ता तै करके कुछ दिनोंमें वहाँ (कोल्हा पुर) जा कर डेरा डाला। समीपस्थ दीपावलीकी रातको, उस नगरके राजाकी रानियाँ महालक्ष्मी देवीकी पूजाके लिए आकुल-व्याकुल हो कर देवीके मन्दिरमें जब आई, तो वह बना हुआ सिद्ध पुरुष, उसी सिद्धवेषसे अलंकृत हो कर और खूब अच्छी तरह कूदना सीखे हुए किसी बर्बर जातिके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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