Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 126
________________ प्रकरण १२५ ] सिद्धराजकी स्तुतिके कुछ फुटकर पद्य । ९१ १७६. हे सिद्ध राज, नत हो जाने पर तो तुमने आ ना क भूपको अनेक लाखोंके साथ सपादलक्ष [जैसा देश ] भी दे दिया और दृप्त ऐसे य शो वर्मा के पास मालव ( मालवा देश; श्लेषार्थ मा लक्ष्मीका लव= लेशमात्र ) का होना भी तुमने सहन नहीं किया। इत्यादि बहुतसी स्तुतियां और प्रबंध उसके बारे में हैं जो [ प्रन्थान्तरोंसे ] जानने योग्य हैं। सं० ११५० से ले कर [ ११९९ तक ] ४९ वर्ष तक श्री सिद्ध रा ज ज य सिंह देव ने राज्य किया। इस प्रकार श्री मेरुतुङ्गाचार्यके बनाये हुए प्रबंध चिन्तामणिमें श्री कर्ण और श्री सिद्धराजका चरित्र वर्णन नामक यह तीसरा प्रकाश समाप्त हुआ। यहाँ पर P प्रतिमें निम्नलिखित श्लोक अधिक पाये जाते हैं । ये श्लोक सो मे श्व र देव रचित की र्तिकौमुदी के हैं और इनमें संक्षेपमें सिद्ध राज के जीवनके महत्त्वके सभी वीर कार्योंका सूचन किया गया है[१०६ ] जिसने, बालक होते हुए भी, इंद्रकी वीरवृत्तिको भी लांघ जाने वाले अपने कोपके प्रभावसे दुष्ट राजाओंको आज्ञाधीन बनाया । [ १०७ ] अपार पौरुषके उद्गारवाले सौराष्ट्रीय खंगार को भी, जिस गुरुमत्सरने युद्धमें इस प्रकार पीस डाला, जैसे सिंह हाथीको पीसता है । [१०८ ] जिसने रामचंद्रकी तरह असंख्य घोड़ोंकी सेना ले कर और अनेक राजाओंको नष्ट करके ( रामके पक्षमें-पर्वतोंको उखाड कर ) सिन्धुपतिको (सिद्धराजके पक्षमें - सिन्धु राज नामका राजा, रामके पक्षमें सिन्धु समुद्र ) बाँध लिया । [१०९ ] मनमें अमर्ष करके विपक्षीय उभृित् (एक अर्थ- पर्वत, दूसरा- राजा) के उन्नत होने पर, जिसने अगस्त्य मुनिकी भाँति, शीर्घ ही अर्णोराज (एक अर्थ-समुद्रदूसरा-शा कं भरी का चा ह मा न राजा ) को शुष्क कर डाला । [११० ] विष्णुने तो अर्णोराज ( समुद्र ) की पुत्री ले ली थी, किन्तु इसने तो अर्णोराजको अपनी पुत्री दे दी* । विष्णु और इस सिद्ध राज में एक यही अंतर है। [१११] शत्रुओंके कटे हुए सिर देख कर शा कं भरी के ईश ने भी शंकित हो कर इसके चरणोंमें अपना सिर झुका दिया। [११२] स्वयं अत्यंत लक्ष्मीवान् और अपरमार ( दूसरोंको न मारनेवाला ) हो कर भी युद्ध में जिसने मालवस्वामी ( एक अर्थ- मालव देशका राजा, दूसरा श्लेषार्थ- लक्ष्मीका किंचित् भोक्ता) परमारको मार डाला। [११३ ] जिसने धारा-न रे श को राज-शुककी तरह काष्ठ-पञ्जर (काठके पिंजड़े ) में रख कर अपनी कीर्तिरूपी राजहंसीको काष्ठा-पञ्जर (दिक्चक्रवाल ) में छोड़ दिया। [११४ ] जिसने न र वर्मा राजाकी तो केवल एक ही नगरी जो धारा थी वह ले ली, पर उसकी वधुओंको [ बदलेमें ] हजारों अश्रु-धारायें दे दी। * शाकंभरी ( अजमेर ) के चाहमान राजा अर्णोराजको, जिसका देश्य नाम आनाक या आना था, सिद्धराजने युद्ध करके पहले तो अपना आज्ञाधीन राजा बनाया और फिर पीछेसे उसको अपनी पुत्री ब्याह दी थी। इसीका सूचन इस पद्यमें हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192