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प्रकरण ६२-६४ ]
महाकवि धनपालका प्रबन्ध [७४ ] ध न पाल कविका सरस वचन और मलयगिरिका सरस चन्दन , हृदयमें रखकर कौन निर्वृत
(शान्त) नहीं होता। [इधर शो भ न मुनि स्तुति करने के ध्यानमें [ लीन होनेसे ] एक स्त्रीके घर तीन बार [भिक्षा लेने ] गया। इससे उस स्त्रीका दृष्टिदोष लगा और वह मर गया। उसने अपने भाईसे अन्त समयमें ९६ स्तुतियोंकी वृति कराके अनशनपूर्वक सौधर्म स्वर्ग प्राप्त किया ।]
-इस प्रकार यह धनपाल पंडितका प्रबंध पूर्ण हुआ।
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६२) कभी, उस नगरका निवासी कोई ब्राह्मण, जिसकी वृत्ति केवल भिक्षा ही थी, एक पर्व दिनमें नगरके सब लोगोंके स्नानमें व्यस्त रहनेके कारण भिक्षा न पाकर खाली ताम्र-पात्रके साथ ही घर लौट आया । इसलिये ब्राह्मणी उसे फटकारने लगी। झगड़ा बढा और ब्राह्मणने उसपर प्रहार किया । आरक्षक पुरुष (नगररक्षक-पुलीस ) उसे कैद करके राजमंदिरमें लाये । राजाके पूछने पर उसने यह श्लोक पढ़ा
१०३. माँ मुझसे सन्तुष्ट नहीं रहती, और अपनी पतोहूसे भी सन्तुष्ट नहीं रहती; वह (बहू) भी
न मुझसे और न माँसे [ सन्तुष्ट ] है । मैं भी न उस (माँ) से और न उस (स्त्री) से [ सन्तुष्ट
रहता हूँ ] | हे राजन् ! बताओ इसमें दोष किसका है !
इसका अर्थ पंडितोंके न समझने पर, राजाने अपनी बुद्धिसे उसके अभिप्रायको प्रायः समझ कर, उसे तीन लाख [दानमें ] दिलवाये । और श्लोकके. अर्थका व्याख्यान करते हुए कहा कि दारिद्र्य ही कलहका मूल है।
सब दर्शनोंसे सत्यमार्गकी पृच्छा। ६३) बादमें, किसी समय, एक बार सब दर्शनोंको एकत्र बुलाकर राजाने मुक्तिका मार्ग पूछा। वे अपने अपने दर्शनका पक्षपात करने लगे । सत्यमार्ग जाननेकी इच्छासे राजाने उन सबको एकमत होनेको कहा । वे सब ६ महीने तक शारदाके आराधनमें लगे रहे । किसी रात्रिके अन्तमें शारदाने यह कहकर कि 'जागते हो ?' राजाको उठाया और ।
१०४. सौगत (बौद्ध ) धर्म है सो तो सुनने लायक है ( अर्थात् उसके सिद्धान्त सुननेमें अच्छे हैं);
और आर्हत (जैन) धर्म है सो करने लायक है। व्यवहारमें वैदिक धर्मका अनुसरण करना योग्य है और परम पदकी प्राप्ति के लिए शिवका ध्यान धरना उचित है।
(अथवा-अक्षय पदका ध्यान करना चाहिए ) राजाको तथा दर्शनों ( सब मतवाले पण्डितों) को यह श्लोक सुनाकर श्रीभारती तिरोहित हुई।
१०५. ' अहिंसा' जिसका मुख्य लक्षण है वही धर्म है । भारती (सरस्वती) है वही सबकी मान्य __देवी है । ध्यानसे मुक्ति प्राप्त होती है यही सब दर्शनोंका मंतव्य है। इन दो श्लोकोंको बनाकर उन्होंने राजाको मुक्तिका निर्णय बताया।
__ शीता पण्डिताका प्रबन्ध । ६४) बादमें, उस नगरकी निवासिनी शी ता नामक रन्वनी ( रसोई बनानेवाली) को किसी विदेशीकार्पटिकने सूर्य पर्वके दिन भोजन बनानेके लिए अन्न दे कर, स्वयं जलाशयमें स्नान करते समय कंगुनीके तेलका पान कर जानेसे, उसके घरपर आते ही, वमन करके मृत्यु प्राप्त हुआ। उसे देखकर, अपनेको द्रव्यके निमित्त मार डालनेका कलंक लगनेकी आशंकासे उस रन्धनीने मरनेके लिए उसी अन्नको खा लिया । वह
[उसके पेटमें ] टिक गया। और उसके प्रभावसे उसको प्रतिभाका बड़ा विभव प्रादुर्भूत हुआ । तीनों Jain Education International For Private & Personal Use Only
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