Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 97
________________ ६२] प्रबन्धचिन्तामणि [ द्वितीय प्रकाश ___७७) इस प्रकार महाकवि गण उसके नाना यशकी स्तुति करते थे। एक बार उस कर्ण राजाने श्री भोज के प्रति प्रधानोंको भेज कर [ यह कहलाया-] ' आपकी नगरीमें आपके बनाये हुए १०४ मन्दिर हैं, इतने ही आपके गीत-प्रबंध और इतने ही बिरुद हैं; इसलिये, या चतुरंग [ सेना ] की लड़ाईमें, या द्वन्द्व युद्धमें, या चारों विद्याओंका शास्त्रार्थ करनेमें, या त्यागमें मुझे जीत कर एक सौ पांच बिरुदोंके पात्र बनो। नहीं तो मैं तुम्हें जीत कर १३७ राजाओंका स्वामी बनूंगा।' इस प्रकार उसके प्रभावके आविर्भावसे भोज का मुखकमल किंचित् म्लान हो गया । वह काशी नगरी के स्वामीको सब प्रकारसे जीत जाने योग्य समझ कर और अपनेको पराजित मान कर, अनुरोधपूर्वक उसकी अभ्यर्थना करके इस प्रकार उससे स्वीकार कराया कि-' मैं अवन्ती में, और श्री कर्ण वा णा र सी में एक ही लग्नमें नींव दे कर स्प के साथ ऐसे मंदिर बनवावें जो ५० हाथ ऊंचे हों । जहाँके प्रासादमें प्रथम कलश ध्वजारोपणका उत्सव हो उसमें दूसरा राजा छत्र-चामर छोड़ कर, हाथी पर बैठ कर वहाँ आवे । इस प्रकार भोज के यथा-रुचि अंगीकार करनेकी बात जब कर्ण के कानों पहुँची तो वह यद्यपि क्रुद्ध हुआ तथापि भोज को उस तरह भी नीचा दिखानेके लिये [उद्यत हुआ] । एक ही लग्नमें अलग अलग दोनों जगह जब प्रासाद आरंभ किये गये तो, सारी तैयारी करके, सूत्रधारोंसे कर्ण ने अपने प्रासादको बनाते समय पूछा कि-'बताओ एक दिनमें, सूर्योदय और सूर्यास्तके बीच कितना काम किया जा सकता है ? ' इसके जवाबमें उन्होंने, चतुर्दशाके अनध्यायके दिन, सात हाथ ऊंचे ग्यारह मन्दिर, सूर्योदयमें आरम्भ करके शामको कलश तक बना कर राजाको दिखा दिये । उस सारी सामग्रीसे राजाने प्रसन्न हो, आलस्य छोड कर, भोज के मन्दिरका जब मैंडेरा बाँधा जा रहा था तभी अपने मंदिर पर कलश स्थापित करा दिया; और वजारोपणका लग्न निर्णय कर, दूत भेज कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिये श्री भोज को निमंत्रित किया । तब मा ल वा म ण्ड ल का अधिपति भो ज अपनी प्रतिज्ञा भंग होनेके भयसे, उस तरह जानेमें असमर्थ हो कर चुप हो रहा । इसके बाद प्रासाद पर धजारोपण हो जानेके बाद, पुरातन कर्णके नवीन अवतारके समान उस कर्ण राजाने उतने ही राजाओंके साथ प्रयाण करके श्री भोज के ऊपर आक्रमण किया । उस अवसर पर श्री भोज के राज्यका आधा हिस्सा देनेकी प्रतिज्ञा करके श्री कर्ण ने मा ल व म ण्ड ल पर पुंठ पीछेसे आक्रमण करनेके लिये श्री भीम को आमंत्रित किया । इस तरह उन दो राजाओंसे आक्रान्त होने पर राजा भोज का दर्प, मंत्रसे आक्रान्त सपके विषकी भाँति दूर हो गया। अकस्मात् उसी समय भोज का स्वास्थ्य बिगड़ गया जिसको वहाँ वालोंने छुपा रखा, और नियुक्त मनुष्यों द्वारा सभी घाटोंके रास्ते रोक दिये गये तथा अन्यदेशीय पुरुषोंका प्रवेश एकदम अटका दिया गया। तब भीम ने अपने सन्धिविग्रहिक दाम र को, जो उस समय कर्ण के पास था, भोज का वृत्तान्त. जानने के लिये अपने आदमी भेज कर पूछा । उसने भी उस पुरुषको एक गाथा पढ़ा कर भेजा, जिसने श्री भीम की सभामें आ कर कह सुनाया। यथा १२३. आमका फल [अब ] पक गया है, वृन्त शिथिल हो गया है, आँधी जोरोंसे चल रही है और शाखा कॉपने लगी है । और आगे हम नहीं जानते कि इस कार्यका परिणाम क्या होगा। इस गाथाके रहस्यको जान कर राजा भी म चुप हो रहा। श्री भोज के परलोक-मार्ग की यात्रा जब निकट आई तो उसने उपयुक्त धर्मकृत्य किया और समस्त राजपुरुषोंको राज्यानुशासन दे कर और यह आदेश दे कर कि मेरे हाथ विमानके बाहर रखना, स्वर्ग गया। [२४ ] अरे ! पुत्र, कलत्र और पुत्रियोंको क्या कर रहे हो और खेती बाड़ीको भी क्या कर रहे ___ हो ! मनुष्यको तो अपने हाथ पग दोनों झाड़कर अकेले ही आना है और अकेले ही जाना है। भोज के इस वाक्यको वेश्याने लोगोंसे कहा । Jain Education International For Private *ersonal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192