Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ प्रकरण २७-२९ ] मूलराजका प्रबन्ध [२३ मण्डक (परोंठे) में वेष्टित करके भिक्षाके लिये आये हुए उस तपस्वीके पत्रपुटमें छोड़ दिया । वह उसे न जानता हुआ लेकर वहाँसे लौट गया। यद्यपि सरस्वती नदीने पहले तो उसे मार्ग दे दिया था, पर इस वार बढ़ जानेसे जब उसे मार्ग नहीं मिला, तो वह जन्मकालसे लेकर अपने दोषोंका विचार करने लगा । तात्कालिक भिक्षा संबंधी दोषको जाननेके लिये जब उसे देखता है, तो उसमें उस राजाका दिया हुआ ताम्र-शासन मालूम दिया। इससे तपस्वीको क्रुद्ध जानकर, राजा वहाँ आया और उसकी सान्त्वनाके लिये वह जब अनुनय विनय करने लगा, तो उसने यह कह कर कि-मैंने स्वयं जो दाहिने हाथसे दान ग्रहण किया है वह अन्यथा कैसे होगा; अपने शिष्य व य ज ल दे व को राजाको सौंपा । उस व य ज ल दे व ने कहा कि-शरीरमें उबटनके लिये हमको प्रतिदिन आठ पल उत्तम जातिका चंदन, चार पल कस्तूरी, एक पल कपूर तथा बत्तीस वारांगनाएँ, और जागीरके साथ श्वेत छत्र प्रदान करो; तो मैं प्रबंधकका पद स्वीकार करूँगा। राजाने सब देनेका स्वीकार कर, त्रिपुरुष धर्म स्थान में उसे 'तपस्वियोंका राजा' के पदपर अभिषिक्त किया। वह 'कं कू लोल' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकारके भोगोंको भोगते हुए भी वह अकुटिल भावसे ब्रह्मचर्य व्रतमें निरत रहा। एक बार रातको मूल रा ज की रानी उसकी परीक्षा लेने लगी तो उसे पानका बीडा मार कर कुष्ठिनी बना दिया और फिर अनुनीत होकर उसे अपने उबटनके लेपसे और स्नानके मैले जलसे स्नान करवा कर नीरोग किया। ___ यहांपर लाखाककी उत्पत्ति और विपत्तिका प्रबंध भी दिया जाता है २८) प्राचीन कालमें, किसी परमार वंशमें, राजा की ति राज देवकी का मल ता नामकी लड़की थी। वह बाल्यकालमें, सखियोंके साथ, किसी महलके आंगनमें खेल रही थी। सखियोंने कहा कि अपना अपना वर वरण करो । घोर अन्धकारमें उस का म ल ता की आँखोंका मार्ग बंद हो जानेसे, उसने फूल ड़ नामक पशुपालका, जो उस महलके एक खंभेकी ओटमें खड़ा हुआ था और जिसे यह कुछ भी वृत्तान्त मालूम नहीं था, वरण कर लिया। इसके अनन्तर, कुछ वर्षों के बाद, जब किसी अच्छे वरोंकी खोज उसके लिये की जाने लगी, तो पतिव्रता-व्रतके निर्वाह के विचारसे, उसने अपने माता पितासे अनुज्ञा लेकर उसी (पशुपाल )से विवाह किया । उन दोनोंका पुत्र ला खा क हुआ । वह कच्छ देश का राजा बना । यशो राज को उसने [ अपने पराक्रमसे ] खुश किया था और उसकी बड़ी कृपासे वह सबसे अजेय हो गया था। उसने ग्यारह वार मूलराज की सेनाको त्रासित किया था। एक बार, जब कि वह ला खा, कपिल कोट के किलेमें रहा हुआ था उसी समय, राजा (मूल राज) ने स्वयं जाकर उसे घेर लिया। वह लक्ष (ला खा क) अपने माहे च नामक एक परम साहसी सुभटके आनेकी प्रतीक्षा करने लगा-जिसको कि उसने कहीं धाड़ पाड़नेके लिये भेजा था। यह बात जानकर मूल रा ज ने उसके आगमनके मार्ग घेर लिये । कार्य समाप्त करके आते हुए उस भृत्यसे राजपुरुषोंने कहा 'हथियार रख दो !'। अपने स्वामीके कार्यकी सिद्धिके लिये उसने वैसा ही करके युद्धके लिये प्रस्तुत ला खा क के पास आकर प्रणाम किया। इसके बाद संग्रामके अवसरपर२८. 'ऊगे हुए सूर्यने जो प्रताप नहीं बताया तो हे ला खा ! वह दिन निकृष्ट कहा जाता है। गिनती करनेसे तो आठ कि दस दिन मिल सकते हैं । १ इस वचनका भावार्थ यह मालूम देता है कि सूर्यका उदय होनेपर भी यदि जिस दिन उसका तेज नहीं दिखाई देता-अर्थात् कुहासा छाया रहता है तो लोक उस दिनको निकृष्ट-दुर्दिन मानते हैं । वीर पुरुष या तेजस्वी पुरुष उत्पन्न होकर भी यदि अपना कोई तेज नहीं बतलावें तो उसका उत्पन्न होना निरर्थक ही समझा जाता है। २ इस दूसरे वचनका भावार्थ यह ज्ञात होता है कि-वीर पुरुषको समय प्राप्त होनेपर शीघ्र ही अपना पराक्रम बतलानेके लिये उद्यत हो जाना चाहिए । दिनोंकी गिनती करते रहनेसे तो कुछ लाभ नहीं होता। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192