Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 61
________________ २६ ] प्रबन्धचिन्तामणि [ प्रथम प्रकाश सं० १५५ (१०६६) चैत्र सुदी ६ गुरुवारको, उत्तराषाढा नक्षत्र और मकर लग्नमें, दुर्ल भ राज नामक उसका भाई राज्यपर अभिषिक्त हुआ। इसने पत्तन में व्ययकरण ( कचहरी), हस्तिशाला और घटीगृह युक्त सात तल्लेवाला धवलगृह (राजप्रासाद ) बनवाया । अपने भाई वल्ल भराज के कल्याणार्थ मदनशङ्कर प्रासाद बनवाया और दुर्लभ सर नामक सरोवर भी बनवाया । इस तरह बारह वर्ष इसने राज्य किया।] [प्रबन्धचिन्तामणिकी इस A संज्ञावाली प्रतिमें चौलुक्य वंश के इन राजाओंका कालक्रम आदि कुछ भिन्न क्रमसे लिखा हुआ मिलता है जिसका भी संग्रह करना ऐतिहासिक दृष्टिसे कुछ उपयोगी होगा ऐसा समझ कर हमने इन कोष्ठकान्तर्गत कंडिकाओंमें उसे मुद्रित किया है। यह कालक्रम सूचक पाठ भी चा व डों के कालक्रम सूचक उस द्वितीय पाठके समान अपूर्ण और अव्यवस्थित है। हमारा अनुमान होता है कि ग्रंथकारने पहले पहल जब यह कालक्रमके बतलानेवाले उल्लेखों और संवतोंका संग्रह करना शुरू किया होगा और वृद्ध जनोंसे तथा अन्यान्य लेखोसे इस विषयके प्रमाण एकत्रित करने प्रारंभ किये होंगे, उस समयका लिखा हुआ जो प्राथमिक असंशोधित आदर्श रहा होगा उस परसे यह A संज्ञक आदर्श (तथा उसके समान जातीय अन्य आदर्श) की प्रतिलिपि हुई होगी और इसलिये इनमें यह असंशोधित कालक्रमवाला पाठ वैसाका वैसा नकल होता हुआ चला आया हुआ होना चाहिए । संशोधित पाठ वही है जो ऊपर मूलमें दिया गया है।] * ३३) इसके बाद [ A D प्रतिके अनुसार 'सं० १०५ (१०७८) ज्येष्ठ सुदी १२ मंगलवारको अश्विनी नक्षत्र, मकर लग्नमें ' ] श्री भी म नामक अपने पुत्रका राज्याभिषेक करके स्वयं तीर्थोपासनाकी वासनासे वाणा र सी के प्रति प्रस्थान किया। मा ल व क म ण्ड ल में पहुँचनेपर वहांके महाराजा मुख ने रोक कर इस प्रकार कहा कि-'छत्रचामरादि राज-चिन्होंका परित्याग करके कार्पटिक (संन्यासी) की भाँति आगे जाओ, नहीं तो युद्ध करो'। बीच ही में उत्पन्न ऐसा इसे धार्मिक विघ्न समझकर, यह वृत्तान्त भी मराज को कहलाया और स्वयं कार्पटिकका वेश पहन कर तीर्थयात्रा की; और वहींपर परलोक साधन किया। ३४) इसीके बाद मा ल वा के राजाओंके साथ गूजरा त के राजाओंका दृढमूल ऐसा विरोधका बंधन बंध गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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