Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 44
________________ प्रकरण ८-११] विक्रमार्कराजाका प्रबन्ध [९ 'सर्वज्ञ पुत्र' कह कर उनकी स्तुति कर रहे थे । 'सर्वज्ञ पुत्र' इस बिरुदसे कुपित होकर विक्रमादित्य ने उनकी सर्वज्ञताकी परीक्षाके लिये मन-ही-मन प्रणाम किया । सिद्ध से न ने भी पूर्वगत श्रुतज्ञानके द्वारा राजाका मनोगत भाव समझकर, दाहिना हाथ उठाकर धर्म लाभ का आशीर्वाद दिया। राजाने जब आशीर्वाद देनेका कारण पूछा, तो महर्षिने कहा कि - तुम्हारे मानस नमस्कारके लिये यह आशीर्वाद दिया गया है । इस पर उनके ज्ञानसे चकित होकर राजाने उनके पारितोषिक निमित्त एक करोड़ सुवर्ण वितरण किया । ८) एक बार, एक दूसरे अवसरपर, राजाने कोशाध्यक्षसे अपने दिलाए हुए सुवर्णका वृत्तान्त पूछा, तो वह बोला कि- धर्मकी बहीमें मैंने श्लोक बनाकर सुवर्णका वृत्तान्त लिखा है; जो इस प्रकार है - ६. दूर-ही-से हाथ उठाकर 'धर्म लाभ हो' इस प्रकार कहनेवाले सिद्ध से न सूरिको राजाने एक कोटि [सुवर्ण ] दिया। इसके बाद श्री सिद्ध से न सूरिको सभामें बुलाकर राजाने जब कहा कि-उस सुवर्णको ग्रहण कीजिये। तो उन्होंने कहा कि- खाये हुए को खिलाना वृथा है । उसी सुवर्णसे ऋणग्रस्ता पृथ्वीको ऋणमुक्त कीजिये। इस प्रकारका उपदेश मिलनेपर, सूरिके सन्तोषसे सन्तुष्ट होकर राजाने उस बातको स्वीकार किया। ९) उसी रातको राजा वीरचर्या' निमित्त नगरमें घूम रहा था, उस समय एक तेलीको बारबार इस (श्लोकार्ध ) को पढ़ते सुना ७. ' हमारा संदेश नारद ! कृष्णको कहना ।' राजा सवेरा होनेतक रुका रहा पर उत्तरार्ध न सुन सका । उदास होकर राजमहलमें आकर सो गया । सवेरे सामयिक कृत्य करके राजाने उस तेलीको बुलाकर उत्तरार्ध पूछा । उसने कहा 'जगत् दारिद्रयसे दुःखित है [ इस लिये ] बलिके बन्धनको छोडो ॥ ७॥' यह सुनकर सिद्ध से न सूरिके उपदेशको फिरसे कहा हुआ समझकर पृथ्वीको ऋणमुक्त करना शुरू किया। [उज यि नी में राजा विक्र मा दित्य भट्ट मात्र के साथ गुप्त वेश धारण करके महाकालके मंदिरमें नाटक देखने गया । कुछ समयके बाद नागरिकके लड़के द्वारा कराये जानेवाले नाटकमें सूत्रधारके मुखसे उसका वर्णन सुनकर राजाने भी उस नागरिकका धन ले लेनेके लिये मन-ही-मन लोभ किया। बादको कुछ समय बीतनेपर वह प्यासा होकर मुख्य वेश्याके घर परसे भट्टके पाससे पानी मंगवाया । वहां बुढ़िया वेश्या प्रधान पुरुषोंसे कह कर उसके लिये ईखका रस लेनेके लिये उपवनमें गई । काटनेवालोंसे ईख कटवाकर उसका रस निकलवाया पर उससे घड़िया बिलकुल नहीं भरी तो मनमें दुखी होकर ऊपरका शकोरा भर कर ही बहुत देरसे आई । राजाके रस पी लेनेपर भट्ट मात्र ने उसकी देरी और उदासीका कारण पूछा । वह बोली-और और दिन तो एक ही ईखसे घड़ा और शकोरा दोनों भर जाते थे लेकिन आज तो घड़ा भी नहीं भरा। इसका कारण समझमें नहीं आता । भट्ट मात्र ने फिर पूछा कि-तुम लोग तो बडी पकी बुद्धिवाली होती हो इसलिये इसका कारण जानकर और विचारकरके बताओ। फिर वेश्या बोली कि-पृथ्वीके मालिक ( राजा ) का मन प्रजाके प्रति विरुद्ध होगया है, इसलिये पृथ्वीका रस भी क्षीण होगया है । यह कारण उसने निवेदन किया तो राजा भी उसके बुद्धिकौशलसे चकित हुआ। वह फिर अपने घरकी शय्यापर सोया हुआ इस प्रकार विचार करने लगा कि - प्रजा-पीड़न किये बिना, केवल विरुद्ध चिन्ता मात्रसे ही पृथ्वीके रसकी इस प्रकार हानि हुई ! तो १वीर च र्या-उस जमानेके राजा अपनी प्रजाके सुख दुःखोंकी बातें स्वयं जानने-सुननेके लिये कभी कभी रातके समय, एकाकी गुप्तवेशमें महलोंसे बाहर निकल जाते थे और दो चार घंटे इधर उधर घूम फिर कर नगर चर्चाका प्रत्यक्ष अनुभव करते थे। इसका नाम वीरचर्या है । Jain Educatic३-४mational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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