Book Title: Prabandh Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Hajariprasad Tiwari
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 48
________________ प्रकरण १३ ] सातवाहन राजका प्रबन्ध [१३ [हारका वर्णन करनेवाली गाथाका अर्थ इस प्रकार है-] ११. खूब पुष्ट और ऊंचे ऊठे हुए स्तनोंवाली स्त्रीके वक्षस्थलपर रहा हुआ [ मोतीयोंका] हार स्थिर होकर रहनेकी ठीक जगह न मिलनेसे छातीपर उद्विग्न अथवा उन्मुख होकर इधर उधर फिरता रहता है-जैसे यमुना नदीके प्रवाहमें पानीके फेनके बुबुदे इधर उधर फिरते रहते हैं। ['वेणीदण्ड का वर्णन करनेवाली गाथाका अर्थ इस प्रकार है-] १२. हे सुन्दरि, तेरा यह कृष्णकांति वेणीदण्ड नितम्ब-बिम्बपर जो शोभ रहा है वह मानों ऐसा लगता है कि सुरतस्थानरूप महानिधिकी रक्षा करनेवाला कोई भुजंग है। ['खट्वोद्गालि'के वर्णनवाली गाथाका अर्थ इस प्रकार है-] १३. सुरत-संभोगके समय जो संतोषदायक सुंदर सुखानुभव हुआ, उसका विरह होनेसे, हे प्रिय सखि ! यह खाट चूं चूं ऐसा शब्द कर रही है। ['ताल' का वर्णन करनेवाली गाथाका अर्थ इस प्रकार है-] १४. हे शुक ! तूं इसे चांचके लगाने-ही-से गिर जानेवाला पका हुआ आम्रफल मत समझ । यह तो जरठ हो जानेसे बेस्वादवाला और उभडा हुआ तालफल है । [ दूसरा गाथा-पंचक है उसमें 'कदली वृक्ष', 'विन्ध्य गिरी', 'स्नेहाधार' और 'चन्दन वृक्ष' इन ४ वस्तुओंका अन्योक्तिमय वर्णन है। इसकी आखिरी १० वीं गाथामें कहा गया है कि सालीवाहन राजाने ये गाथायें ९ कोडि (प्रत्यंतरमें ४ कोडि) देकर ग्रहण की। इनका अर्थ क्रमशः इस प्रकार है-] १५. जो पुरुष, केलके झाडके समान, दूसरोंको फल देते हुए अपना विनाशका भी विचार नहीं करते, उनके सामने मरना भी वांछनीय है। १६. जिस तरह विन्ध्याचल पर्वत सदा सरस ( हरे भरे ) वृक्षोंको धारण करता है वैसे ही शुष्क (निकम्मे ) वृक्षोंको भी धारण करता है । उसी तरह बड़े पुरुष अपने उत्संगवती-समीपवर्ती निर्गु णोंका भी त्याग नहीं करते । १७. वे मुज्झार' जिन्होंने तृषित होकर प्रथम ही प्रथम जो स्नेहाधार( जलधारा )का जैसे तैसे करके पान किया है वे फिर आजन्म अन्य पानकी इच्छा नहीं करते । १८. शुष्क हो जानेपर भी जिस चन्दनके वृक्षका, सब जनोंको आनन्द देनेवाला ऐसा सुरभि गन्ध है वह जब सरस भाववाला ( हरा फूला ) होगा तब तो फिर कैसा ही होगा। १ यह 'मुज्झार' क्या वस्तु है इसका अर्थ हमें स्पष्ट नहीं हुआ। यह शब्द भी शुद्ध है या नहीं इसकी हमें शंका है। कोश वगैरह ग्रंथों में यह शब्द हमें नहीं मिला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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