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आती है चौथी बात अनात्मा वही है तुम्हारा वास्तविक अस्तित्व जहां 'मैं' की अनुभूति भी अस्तित्व नहीं रखती। इसीलिए इसे 'अनात्मा कहा गया है।
ये हैं चार अवस्थाएं - तीन हैं असंतुलन की और चौथी है संतुलन की। पहली निश्चित है, दूसरी अनिश्चित है, तीसरी सांकेतिक है, चौथी सांकेतिक भी नहीं, अव्यक्त है और यही चौथी सब से अधिक वास्तविक है। पहली सब से अधिक वास्तविक मालूम पड़ती है क्योंकि तुम जीते हो पहली में दूसरी बहुत निकट मालूम पड़ती है क्योंकि तुम जीते हो मन में तीसरी थोड़ी दूर मालूम पड़ती है, लेकिन तुम समझ सकते हो उसे चौथी तो बिलकुल अविश्वसनीय मालूम पड़ती है-अनात्मा? ब्रह्म कहो, या परमात्मा, या तुम जो भी नाम दे दो इसे बहुत दूर मालूम पड़ता है, करीब-करीब असंभव मालूम पड़ता है; और जो सबसे ज्यादा सच है।
द्रष्टा यद्यपि शुद्ध चेतना है फिर भी मन की विकृतियों के माध्यम से वह देखा करता है।
और वह चौथी अवस्था, चाहे तुम उसे उपलब्ध भी हो जाओ-जब तक तुम देह में हो तब तक
तुम्हें अपने अस्तित्व की सभी पतों का उपयोग करना होगा। बुद्ध भी जब तुम से बात करते हैं तो उन्हें मन के द्वारा ही बात करनी पड़ती है। बुद्ध भी जब चलते हैं तो उन्हें शरीर के द्वारा चलना पड़ता है। लेकिन अब, जब एक बार तुम जान लेते हो कि तुम मन के पार हो, तो मन तुम्हें कभी धोखा नहीं दे सकता। तुम उसका उपयोग कर सकते हो और तुम उसके द्वारा कभी उपयोग नहीं किए जाते। यही अंतर होता है ऐसा नहीं है कि बुद्ध मन का उपयोग नहीं करते, वे करते हैं। वे मन का उपयोग करते हैं; मन तुम्हारा उपयोग करता है। ऐसा नहीं है कि वे देह में नहीं जीते हैं, वे जीते हैं। तुम घसिटते हों-देह मालिक होती है और तुम गुलाम होते हो। बुद्ध होते हैं मालिक; देह होती है गुलाम । एक समग्र क्रांति, एक समग्र रूपांतरण घटित होता है - जो ऊपर होता है वह नीचे चला है और जो नीचे होता है वह ऊपर आ जाता है।
दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।
यह योग का या वेदांत का चरम शिखर है. 'दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।' जब द्रष्टा खो जाता है, तो दृश्य भी खो जाता है, क्योंकि वह तो केवल द्रष्टा के मुक्त होने के लिए ही था। जब मुक्ति घट जाती है तो उसकी आवश्यकता नहीं रहती ।